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जैन धर्म : सार सन्देश अँधेरा दूर होता है, न हमारे दुःखों का अन्त होता है और न हम कभी सुखी ही हो सकते हैं। सद्गुरु द्वारा प्राप्त इस ज्ञान की महिमा बताते हुए जैनधर्मामृत में कहा गया है:
इस संसाररूपी उग्र मरुस्थल में दुःखरूप अग्नि से संतप्त जीवों को यह सत्यार्थ ज्ञान ही अमृतरूपी जल से तृप्त करने के लिए समर्थ है, अर्थात् संसार के दुःखों को मिटानेवाला सम्यग्ज्ञान ही है।
जब तक ज्ञानरूपी सूर्य का सातिशय (पूर्णता के साथ) उदय नहीं । होता है, तभी तक यह समस्त जगत् अज्ञानरूपी अन्धकार से आच्छादित . रहता है, किन्तु ज्ञान के प्रकट होते ही अज्ञान का विनाश हो जाता है।
ज्ञान ही तो संसाररूपी शत्रु के नष्ट करने के लिए तीक्ष्ण खड्ग . (तलवार) है और ज्ञान ही समस्त तत्त्वों को प्रकाशित करने के लिए . तीसरा नेत्र है।
जिसकी निर्दोष चेष्टा में तीसरे ज्ञान-नेत्र के द्वारा सारा त्रैलोक्य । दर्पण के समान प्रतिबिम्बित होता है, उसे 'त्रिलोचन' कहते हैं।47
सतगुरु द्वारा जो ज्ञान हमें प्राप्त होता है, वह हमारे अन्दर ही है, सतगुरु कहीं बाहर से कुछ घोलकर हमें नहीं पिलाते। वे तो केवल आन्तरिक आँख खोलने की युक्ति सिखाते हैं। उस युक्ति के जाने बिना हम दुःखी बनकर दर-दर ठोकरें खाते फिरते हैं। हमारी अपनी ही गठरी में ज्ञान का अनमोल रत्न, मणि या लाल रखा हुआ है। पर हम उस गठरी को खोलने की युक्ति नहीं जानते। इसीलिए हम संसार में कंगाल की तरह कौड़ी-कौड़ी के मुहताज बने फिरते हैं और अनगिनत जन्मों तक कष्ट भोगते रहते हैं। अपने अन्दर अनन्त ज्ञान का भण्डार होते हुए भी हम संसार के अन्धकूप में पड़े रहते हैं। सतगुरु उस गठरी को खोलने की युक्ति सिखलाकर ज्ञानरूपी लाल की प्राप्ति करा देते हैं। तब हमें अपने-आप अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, हमारे सभी दुःख मिट जाते हैं और हम अनन्त आनन्द की प्राप्ति कर लेते हैं। इन बातों को समझाते हुए अनुभव प्रकाश में कहा गया है: