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________________ 187 होता है तथा लोक और अलोक दिखाई देने लगते हैं। इस ज्ञान की महिमा अपार है। अन्दर के ज्ञानमय मूर्ति का ध्यान कर अनेकों मुनिजन या सन्त-महात्मा पार हो गये।...उस मूर्ति का स्वरूप ज्ञान का भण्डार है। उस स्वरूप को बार-बार ध्यान करने से अविनाशी रस की प्राप्ति होती है। उस रस का सेवन सन्त-जन करते रहे हैं। तू भी उसका सेवन कर। यह कल्याणमय अनूप ज्योतिस्वरूप पद तेरा अपना ही है। तू परमेश्वर के पद को अपने से दूर मत समझ। अपने को परमेश्वर का ही रूप समझ उसे कुछ याद तो कर। फिर ज्ञान का प्रकाश प्रकट हो जायेगा। मोह का अन्धकार मिट जायेगा और सब कुछ पूरा कर लेने का आनन्दमय भाव चित्त में छा जायेगा। इसलिए परायी (अपने से भिन्न) वस्तुओं का ध्यान और चिन्तन छोड़कर शीघ्र अपनी आत्मा की ओर देख तथा उसके विचार और ध्यान में मग्न रह । तेरे अन्दर ही परमात्मा का आनन्दमय विलास हो रहा है। इससे अधिक भला और क्या है ?46* बाहरी आँखों से हम केवल बाहरी संसार के अनित्य और नश्वर पदार्थों को ही देखते हैं जो मोहक और भ्रामक हैं। वे हमारे अन्दर अनेक विकार पैदाकर हमें दुःख में फंसाये रखते हैं। उस दुःख से मुक्ति दिलाने के लिए सद्गुरु ही हमारे तीसरे नेत्र को खोलते हैं और हमें सच्चा ज्ञान प्रदान करते हैं। उस नेत्र के खुलने पर साधक त्रिलोचन (तीन नेत्रवाला) बन जाता है और वह तीनों लोकों को देख सकता है। उस नेत्र के खुले बिना न हमारे अज्ञान का * अज्ञान-पटल जब मिटैं, सद्गुरुवचन-अंजनौं पटल दूरि भये ज्ञान-नयन प्रकाशै, तब लोकालोक दरसै। ऐसा ज्ञान ताकी महिमा अपार, अनेक मुनि पार भये। ज्ञानमय मूरति की सूरति का सेवन करि करि।...अनन्त सुख निधान स्वरूप भावना के करत ही अविनाशी रस होय, ता रसकौं संत सेय आये। तूं ताकौँ सेय, श्रेयपद रूप अनूप ज्योतिःस्वरूप पद अपना ही है। अपनैं परमेश्वर पद का दूरि अवलोकन मति करै। आपही कौं प्रभु थाप्य (मान) जाकौं नेक यादि करि, ज्ञान-ज्योति का उदय होय, मोह-अन्धकार विलय जाय, आनन्द सहित कृतकृत्यता चित्तमैं प्रकटै। ताकौं वेग (शीघ्र) अवलोकि, आन ध्यावन (परका ध्यान एवं चिंतन) निवारि, विचारि कै संभारि, ब्रह्म विलास तेरा तो मैं है। यातें कहा अधिक? (टिप्पणी 46 का मूलरूप)
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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