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जैन धर्मः सार सन्देश जैसे किसी का जन्म हुआ और वह जन्म से ही अपनी आँख पर चमड़ी लपेटे हुए संसार में आया। उसकी आँख के भीतर प्रकाश ज्यों का त्यों था, पर बाहरी चमड़ी से ढके रहने के कारण उसे अपना शरीर नहीं सूझता था। जब कोई आँख का वैद्य मिला, तब उसने बताया कि चमड़ी के अन्तर पूरी ज्योतिवाली उसकी आँख है और उस वैद्य ने युक्ति द्वारा लिपटी हुई चमड़ी को दूर कर दिया। तब उस बच्चे को अपना शरीर अपने-आप सूझने लगा और अन्य चीजें भी दिखाई देने लगीं। इसी प्रकार अनादि काल से ज्ञान-चक्षु (आन्तरिक आँख) बन्द पड़ी चली आ रही है। इसी कारण अपना आन्तरिक स्वरूप दिखाई नहीं देता। तब सद्गुरुरूपी नेत्र-वैद्य मिले। उन्होंने ज्ञान के आवरण को दूर करने की युक्ति बतायी। उस युक्ति का श्रद्धापूर्वक प्रयोग करने से ज्ञान का आवरण दूर हो गया। तब उस जीव ने स्वयं ही अपने अखण्ड ज्योतिस्वरूप का दर्शन किया और उसे अनन्त सुख की प्राप्ति हुई।45*
सद्गुरु की दीक्षा और उपदेश का अमृतमय वचन ही वह अंजन है जिससे जीव की आन्तरिक आँख का पर्दा हटता है, उसके अन्तर में अनन्त ज्ञान का प्रकाश प्रकट होता है और वह परमात्मा के आनन्दमय रस में मग्न होता है। इसे स्पष्ट करते हुए अनुभव प्रकाश में कहा गया है:
अज्ञान का आवरण तभी हटता है जब सद्गुरु अपने वचनरूपी अंजन से इस आवरण को दूर करते हैं। तभी आन्तरिक ज्ञान-चक्षु प्रकाशित
* जैसे काहू को जन्म भयो, जन्मतें ही आँखिपरि, चामड़ी को लपेटौ चल्यो आयो, मांहि सूं (आभ्यन्तर में) आँखि कौ प्रकाश ज्यों को त्यौं है। बाह्य चर्म आवरण सौं आपको शरीर आपको न दरसे। जब कोऊ तबीब (नेत्र का वैद्य) मिल्यो, ता. कही, याकै मांहि प्रकाश ज्योतिरूप आँख सारी है। वानैं जतन करि चर्म को लपेटौ दूरि कियो, तब शरीर आपकों आप ही देख्यौ, और भी दरसै लाग्यौ। या प्रकारि अनादि ज्ञान दर्शन नैन मुद्रित भये, चले आये, आप स्वरूप न देख्यौ। तब श्री गुरु तबीब (नेत्र वैद्य) मिले, तब ज्ञानावरण दूरि करण को उपाय बतावत ही याकै श्रद्धान करि दूरि ही भयो। तब आपणौ अखण्ड ज्योतिःस्वरूप पद आप देख्यो, तब अनन्त सुखी भयो॥ (टिप्पणी 45 का मूल रूप)