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यह संसार-वन अज्ञान-अन्धकार से व्याप्त है, दुःख-रूप व्यालों से-दुष्ट हाथियों अथवा सर्यों से भरा हुआ है और उसमें ऐसे कुमार्ग हैं जो दुर्गतिरूप गृहों को ले जानेवाले हैं और जिनमें पड़कर सभी प्राणी भूले-भटके घूम रहे हैं-भवन में चक्कर काट रहे हैं। उस वन में निर्मल ज्ञान की प्रभा से देदीप्यमान गुरु-वाक्य रूप-अर्हत्प्रवचनरूप, अथात् गुरु-उपदेशरूप,-महान् दीपक जल रहा है। जो सुबुधजन है वह उस ज्ञानदीपक को प्राप्त होकर और उसके सहारे से सन्मार्ग को देखकर सुखपद को-सुख के वास्तविक स्थान (मोक्ष) को-प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है।43
इसी प्रकार का वर्णन प्रस्तुत करते हुए आचार्य अमितगति भी कहते हैं कि दुःखमय संसार-वन में भटकते रहनेवाले जीव केवल गुरु के बताये मार्ग पर चलकर ही सभी संकटों से बचकर सुरक्षित मोक्षरूपी नगर में पहुँच सकते हैं:
इन दुःखों रूपी हाथियों से भरे हुए व हिंसादि पापों के वृक्षों को रखनेवाले तथा खोटी गतिरूपी भीलों के पल्लियों के (दुष्टवृत्तिवालों के गाँवों के) खोटे मार्ग में नित्य पटकनेवाले संसार वन में सर्व ही प्राणी भटका करते हैं। इस वन के बीच में जो चतुर पुरुष सुगुरु के दिखाए हुए मार्ग में चलना शुरू कर देता है वह परमानन्दमय, उत्कृष्ट व स्थिर एक निर्वाणरूपी नगर में पहुँच जाता है।44
असंख्य जन्मों से जीव की आन्तरिक आँख बन्द पड़ी है। इस कारण उसे अपने-आप का ज्ञान नहीं है। वह अपने अन्तर में प्रवेश कर अपने परमात्मरूप का दर्शन करने में असमर्थ है। जब सद्गुरुरूपी नेत्र-वैद्य अपनी युक्ति द्वारा जीव के अज्ञानरूपी पर्दे को हटाते हैं, तब जीव की आन्तरिक आँख खुलती है। तभी वह अपने अन्दर अखण्ड ज्योतिस्वरूप परमात्मा का दर्शन करने और अनन्त सुख को प्राप्त करने में सफल होता है। अनुभव प्रकाश में इस तथ्य को इन शब्दों में समझाया गया है: