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________________ 184 जैन धर्म: सार सन्देश जोड़कर विनती करते हैं कि मुझे तो उन्हीं के चरणों में पहुँचने की लालसा है। मैं उस दिन पर बलिहार जाऊँगा जिस दिन मेरा भाग्य उदय होगा और मैं उनका दर्शन प्राप्त करूँगा। सच्चे गुरु वास्तव में परमात्मा के साकार रूप होते हैं । जैन धर्म में परमात्मा के दो रूप बतलाये गये हैं: एक सकल (शरीर सहित) और दूसरा निष्कल (शरीर रहित)। इन दोनों भेदों को समझाते हुए णाण-सार (ज्ञान-सार) में कहा गया है: द्विविधः तथा परमात्मा सकलः तथा निष्कलः इति ज्ञातव्यः। सकलो अर्हत्स्वरूप: सिद्धः पुनः निष्कल: भणितः ॥1 अर्थ-सकल और निष्कल-इन दो प्रकार के परमात्मा को जानना चाहिए। अर्हत् (अरहंत) रूप में वे सकल (शरीर सहित) या साकार होते हैं और सिद्धरूप में उन्हें निष्कल (शरीररहित) कहा गया है। इस प्रकार सच्चे गुरु चलते-फिरते सिद्ध भगवान हैं, अर्थात् वे परमात्मा के साकार (शरीरधारी) रूप हैं। हमें ऐसे गुरु के सामने श्रद्धा-भक्ति के साथ सिर झुकाना चाहिए और उनके उपदेशों का दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए। हुकमचन्द भारिल्ल भी उनके चरणों में शीश झुकाते हुए उनके बताये मार्ग पर चलते रहने की अभिलाषा इन शब्दों में प्रकट करते हैं: | चलते फिरते सिद्धों से गुरु, चरणों में शीश झुकाते हैं। | हम चलें आपके कदमों पर, नित यही भावना भाते हैं ॥42 गुरु-प्राप्ति का फल जीव का अज्ञान ही उसके बन्धन का मूल कारण है। गुरु की ही कृपा से जीव अपने जन्म-जन्मान्तर से जकड़े हुए अज्ञान के अन्धकार को समूल नष्ट कर आन्तरिक ज्ञान के प्रकाश को प्रकट करने और अपने दुःखों से सदा के लिए छुटकारा पाकर मोक्ष का अनन्त सुख प्राप्त करने में सफल होता है। गुरु से प्राप्त इस अनुपम लाभ का वर्णन आचार्य पद्मनन्दि इन शब्दों में करते हैं:
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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