SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुरु 183 समता भाव धारण करनेवाले गुरु के अकथनीय आन्तरिक आनन्द और उनकी अपार महिमा का गुण-गान करते हुए पंडित दौलतराम जी भी कहते हैं: अरि मित्र महल मसान कंचन,कांच निंदन थुति करन; अर्घावतारन असि-प्रहारन में सदा समता धरन॥ यों चिन्त्य निज में थिर भये तिन अकथ जो आनंद लह्यो; सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा अहमिन्द्र कै नाहीं कह्यो॥ अर्थ-वीतरागी महात्मा या सच्चे सन्त सद्गुरु शत्रु या मित्र के प्रति, सोना या काँच के प्रति, निन्दा या स्तुति करनेवाले के प्रति और सत्कारपूर्वक पूजा करनेवाले या तलवार से प्रहार करनेवाले के प्रति सदा समता धारण किये रहते हैं। इस प्रकार का समत्व-विचार रखते हुए आत्मस्वरूप में स्थिरता से लीन रहनेवाले महात्मा को जो अकथनीय (वचन से कहा न जा सकनेवाला) आनन्द प्राप्त होता है, वह आनन्द देवताओं के राजा इन्द्र, नागों के राजा वासुकि, चक्रवर्ती राजा या अपने-आपको सबका स्वामी मान बैठनेवाले अभिमानी को मिलने की बात कभी नहीं कही जा सकती, अथात् इन सभी को वह आनन्द कभी प्राप्त नहीं हो सकता। सच्चे गुरु के समता भाव का उल्लेख करते हुए जैन कवि भूधरदासजी भी अपने हृदय में उनके दर्शन की लालसा रख दोनों हाथ जोड़कर उनसे यह विनती करते हैं: वे मुनिवर कब मिलि हैं उपगारी ॥ टेक॥ कंचन काँच बराबर जिनकै, ज्यौं रिपु त्यौं हितकारी। महल मसान मरन अरु जीवन, सम गरिमा अरु गारी॥ वे०॥ जोरि जुगल कर 'भूधर' विनवै, तिन पद ढोक हमारी। भाग उदय दरसन जब पाऊँ, ता दिन की बलिहारी॥ वे० ॥40, अर्थ-पता नहीं वे श्रेष्ठ परोपकारी मुनिवर या महात्मा मुझे कब मिलेंगे जिनके लिए सोना और काँच, शत्रु और हितैषी मित्र, महल और श्मशान भूमि, मरण और जीवन तथा प्रशंसा और गाली एक समान है। भूधरदास जी दोनों हाथ
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy