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जैन धर्मः सार सन्देश ...ऐसा जो वक्ता धर्मबुद्धि से उपदेशदाता हो वही अपना तथा अन्य जीवों का भला करता है और जो कषायबुद्धि से (मान, माया, लोभ आदि से युक्त बुद्धि से) उपदेश देता है वह अपना तथा अन्य जीवों का बुरा करता है-ऐसा जानना। स्वार्थी उपदेशकों से सावधान करने के उद्देश्य से वे फिर कहते हैं: वक्ता कैसा होना चाहिए कि जिसको शास्त्र बाँचकर आजीविका आदि लौकिक-कार्य साधने की इच्छा न हो; क्योंकि यदि आशावान हो तो यथार्थ उपदेश नहीं दे सकता। सच्चा गुरु जिसे आत्मस्वरूप का अनुभव प्राप्त हो गया होता है, वह अपनी चैतन्यस्वरूप आत्मा को संसार के समस्त पदार्थों से, जो जड़ या अचेतन हैं, बिल्कुल भिन्न समझता है। संसार के सभी पदार्थों से अपनी आत्मा की भिन्नता के ज्ञान को ही जैन धर्म में भेद-विज्ञान' कहा जाता है। इस भेद-विज्ञान के प्रकट होने से सच्चे गुरु को सांसारिक वस्तुओं के प्रति कभी भी राग, द्वेष या मोह नहीं होता। वे सदा शान्त और शीतल बने रहते हैं। उनके सत्य स्वरूप, शीतल चित्त और शान्त भाव का उल्लेख करते हुए जैन कवि बनारसीदास जी उनकी वन्दना इन शब्दों में करते हैं:
भेदविज्ञान जग्यौ जिन्हकै घट, शीतल चित्त भयौ जिम चंदन। केलि करें शिवमारग में, जग माहिं जिनेश्वर के लघुनन्दन ॥ सत्य सरूप सदा जिन्हकै, प्रगट्यौ अवदात मिथ्यात्व-निकंदन।
शान्त दशा तिन्हकी पहिचानि, करै कर जोरि बनारसि बंदन ॥8, अर्थ-जिनके अन्तर में भेद-विज्ञान प्रकट हो गया होता है, उनका चित्त चन्दन की तरह शीतल हो जाता है। अपने को जिनेश्वर भगवान् का एक छोटा (तुच्छ) पुत्र (शिष्य) माननेवाले गुरु संसार में आकर शिवमार्ग, अर्थात् कल्याणमय मोक्ष-मार्ग में चलने का आनन्द मनाते हैं। मिथ्यात्व-भाव को नष्ट करनेवाला उनका निर्मल सत्यस्वरूप सदा प्रकट रहता है। उनकी शान्त दशा को पहचानते हुए बनारसीदास हाथ जोड़कर उनकी वन्दना करते हैं।