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________________ 181 वे कभी किसी का दिल नहीं दुःखाते और न गुप्त या प्रकट रूप से दूसरों से अपने लिए कुछ लेते हैं। वे सदा सभी परिस्थितियों में सदाचार के नियमों का पालन करते हैं। वे अहिंसा, सत्य, अचौर्य (दूसरों की कोई वस्तु नहीं लेने के नियम) और ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का निर्वाह सहज भाव से करते हैं। इनके इन सद्गुणों का उल्लेख करते हुए मूलशंकर देशाई कहते हैं: कैसे हैं वे गुरु? त्रस तथा स्थावर (चर और अचर) जीवों की मन वचन काय से हिंसा करते नहीं हैं, दूसरे जीवों से हिंसा कराते नहीं हैं तथा जो हिंसा करता है उसकी अनुमोदना भी करते नहीं हैं। ऐसे अहिंसा महाव्रत युक्त हैं। वे मुनिराज हित मित (हितकारी और मधुर) आगम (सद्ग्रन्थों के) अनुकूल वचन बोलते हैं। जिनकी वाणी में न कटुता है न कठोरता है, ऐसे सत्य महाव्रत युक्त हैं। वे मुनिराज पराई वस्तु लेने का भाव भी करते नहीं हैं ऐसे अचौर्य महाव्रत युक्त हैं। उन मुनिराज का संसार की सब ही स्त्रियों के प्रति माता, बहिन, पुत्री जैसा व्यवहार है और अपने अन्तरंग में रत्ती भर काम-वासना आने नहीं देते। अत: ब्रह्मचर्य महाव्रत सहित हैं। यों तो संसार में उपदेशकों की कोई कमी नहीं। पर केवल सद्गुरु ही सच्चे हितोपदेशी होते हैं जो निस्वार्थभाव से केवल जीवों के कल्याण के लिए उपदेश देते हैं । वे स्वयं अध्यात्मरस के आनन्द का अनुभव प्राप्त कर चुके होते हैं और दूसरों को भी अपने उपदेश द्वारा वे उसी आनन्द-रस का अनुभव प्राप्त करने की प्रेरणा देते हैं। जिसने स्वयं अध्यात्मरस को चखा नहीं है उसे सच्चा उपदेशक या वक्ता नहीं मानना चाहिए। इस सम्बन्ध में पण्डित टोडरमल बड़ी ही स्पष्टता के साथ कहते हैं: अध्यात्मरस द्वारा यथार्थ अपने स्वरूप का अनुभव जिसको न हुआ हो वह जिनधर्म का मर्म नहीं जानता। अध्यात्मरसमय सच्चे जिन धर्म का स्वरूप उसके द्वारा कैसे प्रकट किया जाये? इसलिए आत्मज्ञानी हो तो सच्चा वक्तापना (उपदेशक होने का गुण) होता है। जो अध्यात्मरस का रसिया वक्ता है, उसे जिनधर्म के रहस्य का वक्ता जानना।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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