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________________ 180 जैन धर्म : सार सन्देश सुनो भाई! मूल वस्तु तो आत्मा को समझ कर उसमें लीन होना है। आत्मविश्वास (सम्यग्दर्शन), आत्मज्ञान (सम्यग्ज्ञान) और आत्मलीनता (सम्यक्चारित्र) जिसमें हो तथा जिसका बाह्याचरण भी आगमानुकूल (सद्ग्रन्थों के अनुकूल) हो, वास्तव में सच्चा गुरु तो वही है। सच्चे गरु में किसी प्रकार का विकार नहीं होता। वे सर्वदोषरहित और सर्वगुणसम्पन्न होते हैं। उनकी शक्ति का भी कोई अन्त नहीं होता। पर वे अपनी शक्ति का प्रदर्शन (दिखावा) नहीं करते। वे शान्त-भाव धारण किये रहते हैं। उनके शान्त स्वरूप के दर्शन मात्र से श्रद्धाल जीवों में आन्तरिक प्रसन्नता, सद्भावना और भक्ति की लहर दौड़ जाती है और वे सहज भाव से मोक्ष-मार्ग की ओर प्रवृत हो जाते हैं। ऐसे गुरु की भक्ति से मन सांसारिक विषयों से हटता है और एकाग्र भाव से आन्तरिक आनन्द में लीन होना चाहता है तथा इसके लिए उचित प्रयत्न या साधना में लगता है। अनुभव प्रकाश में गुरु के शान्त स्वरूप और गुरु भक्ति की महिमा का उल्लेख इन शब्दों में किया गया है: गुरु मोक्ष-प्राप्ति के मार्ग का उपदेश देते हैं। शान्त स्वरूप धारण करनेवाले गुरु कोई वचन बोले बिना ही मोक्ष का मार्ग दिखलाते हैं। ऐसे सर्वदोषरहित श्री गुरु की भक्ति करने को कहा गया है। इनकी भक्ति से मुक्ति प्राप्त होती है, यह समझते हुए गुरु-भक्ति करनी चाहिए। तब मन सब भोगों से उदासीन होकर आत्मस्वरूप में स्थिर होना चाहता है और उसके लिए साधना में लगता है। इसलिए मन की स्थिरता साध्य (लक्ष्य) है और गुरु भक्ति उसका कारण (साधक या प्रेरक) है।34* शान्तभाव धारण करनेवाले सद्गुरु जब कभी जीवों को उपदेश देने के लिए वचन बोलते हैं तो उनका वचन सदा सत्य, मधुर और हितकारी होता है। * गुरु मोक्षमार्ग उपदेशै, शान्त मुद्राधारी गुरु, मुद्रा बिना वचन बोल्या ही मोक्षमार्ग दिखावै, ऐसै श्री गुरु सर्व दोष रहित तिनकी भक्ति कही। इनकी भक्ति मुक्ति का यह कारण जानि करै। तब भव भोगसों उदास होय मन स्वरूप ही की स्थिरता चाहै, क्रिया साधै। तातैं उनकी भक्ति साधक है, मनकी स्थिरता साध्य है। (टिप्पणी 34 का मूल रूप)
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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