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गुरु
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(परम ज्योतिर्मय परमात्मा) भी कहा जाता है। जैनधर्मामृत में इन बातों को इस प्रकार समझाया गया है:
जो शारीरिक-मानसिक आदि सर्वं प्रकार के क्लेशों में पड़े हुए प्राणियों को सर्व-अर्थों की प्रतिपादन करनेवाली अपनी अनुपम भाषा या दिव्यवाणी द्वारा बोध- प्रदान करता है, उसे 'बोधिसत्त्व ' (परम ज्ञानमय या चैतन्यमय स्वभाववाला) कहते हैं । लोकालोक ( लोक और अलोक) को प्रकाश करनेवाली केवलज्ञानरूपी किरणों द्वारा जिसकी आत्मा में सदा सुप्रभात रहता है, वह 'भव्य-दिवाकर' (दिव्य ज्ञान का शीतल और सुखद प्रकाश देनेवाला सूर्य) कहलाता है । जिसने ध्यानरूपी अग्नि द्वारा अपने जन्म, जरा और मृत्युरूपी महारोगों को दग्ध कर दिया है और जो आत्म-ज्योतियों का पुंज है वही वस्तुतः 'वैश्वानर' (परमज्योतिर्मय परमात्मा) है। 31
यह स्पष्ट है कि सच्चे गुरु (सन्त सद्गुरु ) जिस ज्ञान को प्रदान करते हैं, वह आन्तरिक ज्ञान है, कोई बाहरी ज्ञान नहीं । सच्चे गुरु संसार से अनासक्त या वीतराग होते हैं । इसलिए वे अपने शिष्यों को संसार के बाहरी विषयों में नहीं उलझाते। वे उन्हें बाहरी क्रियाओं और दिखावटी वेशभूषा से दूर रखना चाहते हैं और उन्हें अन्तर्मुखी बनने का उपदेश देते हैं । इसे स्पष्ट करते हुए कानजी स्वामी कहते हैं:
अहा, वीतरागमार्गी सन्तों की कथनी ही जगत से जुदी है। वह अन्तर्मुख ले जानेवाली है । अतः हे जीव ! सच्चे गुरु का स्वरूप पहचान कर कुगुरु की मान्यता को तुम छोड़ दो जिससे तुम्हारा हित होगा।
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सच्चे गुरु सदा सदाचार के नियमों का दृढ़ता से पालन करते हुए अन्तर्मुखी ध्यान या समाधि द्वारा अपनी आत्मा में लीन होकर सच्चे आनन्द को प्राप्त कर
चुके होते हैं। इसलिए वे अपने शिष्यों को भी अन्तर्मुखी होकर अपनी आत्मा में लीन होने का ही उपदेश देते हैं। सच्चे गुरु की पहचान बताते हुए हुकमचन्द भारिल्ल बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहते हैं: