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जैन धर्म : सार सन्देश
परमपद में स्थित, केवल ज्ञान की ज्योति से प्रकाशित, वीतरागी, कर्म से रहित, कृतकृत्य, सर्वज्ञ, आदि-मध्य-अन्त से भी रहित, सभी प्राणियों के हितकारक सच्चे देव ही हितोपदेशी कहलाते हैं ।
जैसे वादक के हाथ का स्पर्श पाकर मृदंग बजने लगता है, उसे और कोई अपेक्षा नहीं होती उसी प्रकार हितोपदेशी अरिहन्त देव जीवों के हित के लिए बिना किसी स्वार्थ, राग और अपेक्षा के उपदेश देते हैं। वे ही सच्चे देव हैं । 29
लोक प्रकाशक और लोक हितकारी गुरु या उपदेशक बनने के लिए अपने ध्यान में पूर्ण एकाग्रता प्राप्त कर केवलज्ञान (सर्वज्ञता ) की प्राप्ति करना आवश्यक है। केवल ज्ञान की प्राप्ति करने का उल्लेख ज्ञानार्णव में इस प्रकार किया गया है:
(साधक) एकत्ववितर्क अविचार (पूर्ण एकाग्र ) ध्यान से घाति कर्म ( आत्मा के स्वरूप को ढकनेवाले कर्म) को नाश करके, अपने आत्मलाभ को प्राप्त होता है और अत्यन्त उत्कृष्ट शुद्धता को पाकर, केवलज्ञान और केवलदर्शन (पूर्ण विश्वास) को प्राप्त करता है। वे ज्ञान और दर्शन दोनों अलब्धपूर्व हैं, अर्थात् पहले कभी प्राप्त नहीं हुए थे सो उनको पाकर, उसी समय वे केवली (सर्वज्ञ) भगवान् समस्त लोक और अलोक को यथावत् (यथार्थ रूप में) देखते और जानते हैं । जिस समय केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है उस समय वह भगवान् सर्वकाल में उदयरूप (प्रकटरूप) सर्वज्ञदेव होते हैं और अनन्त सुख अनन्त वीर्य (शक्ति) आदिक विभूति (ऐश्वर्य) के प्रथम स्थान (सर्वोच्च स्थान पर) होते हैं । 30
ऐसे सर्वगुणसम्पन्न सर्वज्ञाता सद्गुरु अपनी दिव्यध्वनि द्वारा अधिकारी जीवों को बोधि (आत्मिक ज्ञान) प्रदान करते हैं । उस दिव्यध्वनि से ही समस्त ज्ञान प्रकट होता है । यह दिव्यध्वनि परम प्रकाशमय होती है । इसीलिए सर्वज्ञाता सद्गुरु को बोधिसत्व (परम ज्ञानमय या चैतन्यमय ) और वैश्वानर