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________________ 177 मार्ग बतलाते हैं। सच्चे गुरु के उपदेश के बिना सत् का ज्ञान इन्द्रियों या मन-बुद्धि द्वारा पहले से कभी किसी को प्राप्त नहीं हुआ होता। इस ज्ञान के प्राप्त होने पर ही कोई साधक केवली (सर्वज्ञ) गुरु का पद प्राप्त करता है। इस ज्ञान की प्राप्ति से उसे अनन्त सुख, अनन्त शक्ति आदि अन्य सभी सद्गुण सहज ही प्राप्त हो जाते हैं और वह सच्चे गुरु का पद प्राप्तकर जीवों का सच्चा हितोपदेशी बन जाता है। वास्तव में सत् का अनुभव करनेवाले सद्गुरु या अर्हन्त (अरिहंत) देव की कृपा से ही कोई सच्चा शिष्य गुरु-पद की प्राप्ति करता है। उनकी कृपा के बिना कोई अपने-आप सद्गुरु या अरिहंत नहीं बन सकता। आचार्य श्री शिवमुनि जी महाराज ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा है: अरिहंत होने की योग्यता गुरु की कृपा के बिना सम्भव नहीं है।” अर्हत् (अर्हन्त) या सन्त सद्गुरु की सेवा और भक्ति द्वारा ही साधक सच्चे ज्ञान को प्राप्त कर मुक्ति की प्राप्ति करता है और फिर वह अपने गुरु की कृपा से स्वयं गुरु के पद को प्राप्त कर जीवों को मुक्ति का उपदेश देता है। इस प्रकार मनुष्य-जीवन के लक्ष्य, मुक्ति की प्राप्ति गुरु-भक्ति द्वारा ही होती है। इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य शिव मुनि जी कहते हैं: जैन धर्म के अनुसार अर्हत् एक आदर्श सन्त हैं, सर्वोच्च शिक्षक (उपदेशक) हैं एवं सर्वज्ञ हैं। जो उनकी भक्ति करता है, वह मुक्ति प्राप्त कर लेता है। 28 सद्गुरु या अरिहन्त देव अपना मुक्तिदायक उपदेश बिना किसी निजी स्वार्थ के केवल जीवों के उपकार के लिए प्रदान करते हैं। इसलिए उन्हें आप्त या सच्चा हितकारक कहा जाता है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इसे इन शब्दों में समझाया गया है: दोषों से रहित, सर्वज्ञ और जैनागम का उपदेष्टा ही सच्चा आप्त (विश्वसनीय उपदेशक, अरिहन्त) है। अन्य कोई सच्चा आप्त अर्थात सच्चा देव नहीं है।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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