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जैन धर्म: सार सन्देश
श्रीगुरु परमदयाल है, दियो सत्य उपदेश। । ज्ञानी माने जान के, ठाने मूढ कलेश ॥5
गुरु का स्वरूप इस अध्याय के प्रथम भाग का अन्त करते हुए जिस दोहे को उद्धृत किया गया है, उसकी पहली पंक्ति 'श्रीगुरु परमदयाल है, दियो सत्य उपदेश' से ही सच्चे गुरु के स्वरूप के सम्बन्ध में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण संकेत मिलता है। यों तो सच्चे गुरु के ज्ञान, सामर्थ्य और सदाचार सम्बन्धी सभी गुणों को गिनाना कठिन है, क्योंकि वे अनन्त गुणों के स्वामी होते हैं, फिर भी इस पंक्ति में उनके मुख्य गुणों की ओर संकेत करते हुए यह कहा गया है कि सच्चे गुरु परम दयालु होते हैं, उन्हें सत् (अविनाशी तत्त्व) का पूर्ण अनुभव प्राप्त होता है और वे कृपाकर जीवों के कल्याण के लिए उन्हें सत् का ही उपदेश देते हैं। इसी कारण उन्हें संस्कृत में 'सद्गुरु' और हिन्दी में 'सतगुरु' या 'सत्गुरु' कहते हैं। जिसे सत् का यथार्थ अनुभव नहीं होता वह सत् का उपदेशक नहीं हो सकता। इसीलिए कानजी स्वामी मुमुक्षु (मोक्ष के इच्छुक) जीवों को सावधान करते हुए कहते हैं:
मुमुक्षु जीवों को यह विशेष ध्यान रखना चाहिए कि जिन्होंने सत् का अनुभव किया हो-ऐसे 'सत्' पुरुषों के निकट ही सत् का उपदेश मिल सकता है, किन्तु जिन्होंने 'सत्' का अनुभव ही नहीं किया-ऐसे' अज्ञानियों के पास से कभी सत्-उपदेश की प्राप्ति नहीं होती।
यदि कोई यह प्रश्न करे कि क्या हम अपने-आप सत् का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते, तो उसे समझाया जा सकता है कि साधारणत: जो ज्ञान हम अपने-आप प्राप्त करते हैं वह अपने इन्द्रियों और मन द्वारा ही करते हैं। पर इन्द्रियों और मन द्वारा केवल सांसारिक पदार्थों का ही ज्ञान होता है जो सभी असत् (नश्वर) हैं। सत् का ज्ञान इन्द्रियों और मन द्वारा नहीं होता। वह ज्ञान अतीन्द्रिय (इन्द्रियों से परे) है। इसे केवल आन्तरिक ध्यान या समाधि द्वारा अपने अन्तर में अनुभव किया जाता है। सच्चे गुरु उस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद ही अपने अनुभव के आधार पर दूसरों को इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करते हैं और उसका