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________________ गुरु सद्गुरु के इस प्रकार समझाने पर और अपने उद्धार का सुअवसर सामने आने पर भी यदि मूढ़ प्राणी उनकी बातें न माने, उलटे उपद्रव ठाने और उन्हें कष्ट देने का प्रयत्न करे तो फिर उसे कौन बचाये ? वह फिर अपना आप ही जाने । ऐसे जीव के सम्बन्ध में पण्डित टोडरमल जी कहते हैं: जिस प्रकार बड़े दरिद्री को अवलोकन मात्र चिन्तामणि की प्राप्ति हो और वह अवलोकन न करे, तथा जैसे कोढ़ी को अमृत पान कराये और वह न करे; उसी प्रकार संसार पीड़ित जीव को सुगम मोक्षमार्ग के उपदेश का निमित्त बने और वह अभ्यास न करे तो उसके अभाग्य की महिमा हम से तो नहीं हो सकती। स्वाधीन (आत्मनिर्भर, आत्मसन्तुष्ट, किसी से कुछ लाभ की आशा न करनेवाला) उपदेशदाता गुरु का योग मिलने पर भी जो जीव धर्मवचनों को नहीं सुनते वे धीठ ( ढीठ या उदण्ड) हैं और उनका दुष्ट चित्त है । 23 175 जब जीव सद्गुरु के उपदेश को श्रद्धापूर्वक सुनता है, उसे मानता है और फिर उसके अनुसार दृढ़तापूर्वक अभ्यास करता है, तभी वह पारमार्थिक मार्ग में कुछ आगे बढ़ सकता है । यह साहसी और पुरुषार्थी साधकों का मार्ग है, कायरों और कामचोरों का नहीं। भूधरदास जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है: सतगुर देय जगाय, मोह नींद जब उपशमैं । तब कछु बनहिं उपाय, कर्मचोर आवत रुकैं ॥24 परम दयाल गुरु तो दया करते हैं, पर मूढ़जन अपनी मूढ़ता से बाज़ नहीं आते। भाग्यशाली मनुष्य गुरु की महानता को समझते हुए उन्हें परमात्मरूप मानते हैं, उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति का भाव रखते हैं और उनकी दया का लाभ उठाते हैं, पर मूढ़ अपनी मूर्खता के कारण उनका अनादर करते हैं, उन्हें कष्ट देने की चेष्टा करते हैं और अन्त में रोते-बिलखते और हाथ मलते संसार से विदा लेते हैं। सद्गुरु के प्रति ज्ञानी ( विचारवान् व्यक्ति) और मूढ़जन के व्यवहार की इस भिन्नता का संकेत देते हुए पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा गया है:
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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