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जैन धर्म : सार सन्देश भावार्थ-जिनको ध्यान की सिद्धि करनी हो, उन्हें ऐसे मुनियों (सन्तों या महात्माओं) की सेवा करनी चाहिये।
इस दुर्लभ मनुष्य-जीवन को सफल बनाने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम किसी सच्चे सन्त सद्गुरु की सेवा में जाकर उनसे दीक्षा प्राप्त करें
और उनके उपदेश के अनुसार अपने-आप को रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन (सच्ची श्रद्धा), सम्यग्ज्ञान (सच्चे ज्ञान) और सम्यक् चारित्र (सच्चे आचरण) को सिद्ध करने में पूरी तरह लगा दें। सद्गुरु के बिना जीव का कल्याण नहीं हो सकता। वे अपार कृपा करके और घोर कष्ट उठाकर जीवों को जगाते हैं, उन्हें सन्मार्ग में लगाते हैं और उन्हें सदा के लिए सुखी बनाने का अथक प्रयास करते हैं। सन्त सद्गुरु की अनुपम कृपा का उल्लेख करते हुए कानजी स्वामी कहते हैं:
अहा जीवों को हितपंथ में लगाने के लिए सन्तों ने बड़े अनुग्रह से उपदेश दिया है। मिथ्यात्वादि भाव (आत्मा से भिन्न पदार्थों में मैं-मेरी का भाव आदि) ही संसार के जाल हैं, उसमें फँसकर जीव चार गति में रुलता है और दुःखी होता है। उसको दुःख से छुड़ाकर सुख का अनुभव कराने के लिए श्रीगुरु ने यह वीतरागविज्ञान का उपदेश दिया है। | तातें दुःखहारी सुखकार, कहें सीख गुरु करुणाधार । | ताहि सुनोभवि मन थिर आन, जो चाहो अपना कल्याण ॥ हे भाई! तुम्हारे अपने ही कल्याण के लिए इस उपदेश को तुम अंगीकार करो। आत्महित के अभिलाषी मुमुक्षु जीवों! गृहीत-अगृहीत (ग्रहण किये हुए और ग्रहण न किये हुए) सभी मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र को छोड़कर और शुद्ध सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को अंगीकार करके आत्मकल्याण के मार्ग में लागो, पराश्रयभावरूप (पराये में आत्मभावरूप) इस संसार में भटकना छोड़ो, मिथ्यात्वादि भावों का सेवन छोड़ो और सावधान होकर आत्मा को रत्नत्रय की आराधना में जोड़ो।