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________________ गुरु लेने से उसका विष दूर हो जाता है, तो हर हालत में नेवला साँप को मार देता है; उसी प्रकार यह सारा संसार सर्प - रूप है और पुरुषार्थ करनेवाला जीव नेवला के समान है। सर्प रूप संसार है, नौल रूप नर जान । सन्त बुटी संयोग तें, होत अहि-विषहाण ॥ यह संसार सर्परूप है और नेवलारूपी पुरुषार्थ करनेवाला जीव है; जब यह जीव संसार के विषय भोगों की अनुकूलता और प्रतिकूलता में जलता है, तब उसको संतरूप जड़ी-बूटी से सर्परूप जो मिथ्यात्व है, उसका नाश हो जाता है। यह जीव अनादि काल से दुःखी हो रहा है, उसका कारण केवल यही है कि इसे सन्तरूपी बूटी नहीं मिली | 20 जब तक जीव निर्मल ज्ञान से परिपूर्ण किसी सन्त सद्गुरु से दीक्षा ग्रहणकर उनकी सेवा में नहीं लगता, अर्थात् उनके उपदेशानुसार दृढ़तापूर्वक पारमार्थिक अभ्यास में नहीं जुटता, तब तक उसके लिए मुक्ति प्राप्त करना सम्भव नहीं है । इसीलिए शुभचन्द्राचार्य सच्चे महात्मा के कुछ लक्षणों को बतलाकर उनकी सेवा में लगने का उपदेश देते हैं । वे कहते हैं: जो संयमी मुनि (महात्मा) तत्त्वार्थ का ( वस्तुका ) यथार्थ स्वरूप जानते हैं, मोक्ष तथा उसके मार्ग में अनुरागी हैं, और संसारजनित सुखों में निस्पृह (बांछारहित) हैं वे मुनि (महात्मा) धन्य हैं। उनका कीर्त्तन वा प्रशंसा की जाती है। 173 जिन मुनिजनों का संयमरूपी जीवन क्रोधादि कषायरूप सर्पों से तथा अजेय रागादि निशाचरों से नष्ट नहीं हुआ है; तथा जिनका चित्त निर्मल ज्ञानरूप अमृत के पान से पवित्र है और जो स्थावर त्रस (नहीं चलनेवाले और चलनेवाले) भेदयुक्त जगत् के जीवों के लिए करुणारूपी जल के समुद्र हैं, हे आत्मन् ! मुक्तिरूपी मंदिर पर चढ़ने की प्रवृत्ति करते तुझे पूर्वोक्त प्रकार के मुनियों (सन्तों या महात्माओं) के चरणों की छाया ही सोपान (सीढ़ी) की पंक्ति के समान होवेगी ।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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