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प्रस्तावना
इससे पता चलता है कि जैन धर्म की प्रवृत्ति सदा से वैर-विरोध से दूर रहने की रही है। __ यह मनुष्य-जीवन अत्यन्त दुर्लभ है। इसे प्राप्त करने का लाभ यही है कि हम अपनी आत्मा के स्वरूप को पहचानकर मोक्ष की प्राप्ति कर लें। सद्ग्रन्थों को पढ़ने से इसके लिए प्रेरणा प्राप्त होती है और साथ ही आध्यात्मिक विषयों की कुछ जानकारी भी मिलती है। पर केवल इसी से हमारा काम पूरा नहीं होता। हमें किसी मुक्तात्मा या सद्गुरु से मोक्ष-मार्ग का उपदेश ग्रहण कर आत्मज्ञान के लिए आन्तरिक साधना करने की आवश्यकता होती है। तभी आत्मानुभव या सत्य की प्राप्ति हो सकती है। सत्य वह नहीं है जिसे हम किसी अन्धपरम्परा के आधार पर या दूसरों की देखादेखी मान बैठते हैं। सत्य तो वह है जिसका हम स्वयं अपने अन्तर में साक्षात् अनुभव प्राप्त करते हैं। इस अनुभव से प्राप्त ज्ञान को हम परोपकार की भावना से दूसरों को प्रेमपूर्वक समझा सकते हैं। पर कभी भी किसी के ऊपर अपने विचारों को लादने या किसी से अनावश्यक वाद-विवाद करने की कोशिश करना व्यर्थ और अनुचित है। अपने हृदय में दया और प्रेम की भावना रखनेवाला आत्मज्ञानी मनुष्य किसी से वैर-विरोध या झगड़ा कर भी कैसे सकता है?
जैन धर्म का साहित्य बहुत विशाल है। अनेक प्राचीन प्राकृत और संस्कृत ग्रन्थों के अतिरिक्त हिन्दी भाषा तथा कुछ अन्य भारतीय भाषाओं में भी जैन धर्म के बहुत से अनुवाद और स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। पर आज के बहुधन्धी समाज में लोगों के पास इन ग्रन्थों को पढ़ने और इन पर गहराई से विचार करने का समय नहीं है। आध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में आज के समाज में भौतिकता और भोगवृत्ति बढ़ती जा रही है जिससे सच्चे सुख और शान्ति की आशा दूर होती जा रही है।
प्राचीन सन्तों, महात्माओं और तीर्थंकरों ने गहरी आत्मसाधना द्वारा जिस सत्य की प्राप्ति की थी और जिससे उन्हें सच्चे सुख और शान्ति की प्राप्ति हुई थी उसकी आज भी उतनी ही आवश्यकता है जितनी पहले कभी थी। इसीलिए जैन धर्म की सार शिक्षा को सरल, संक्षिप्त और व्यावहारिक रूप से प्रस्तुत करने का विचार किया गया। इस उद्देश्य से जैन साहित्य के अथाह समुद्र में