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जैन धर्म : सार सन्देश से अलग रखकर किसी भी नाम से पुकारे गये उस मार्गदर्शक अर्हत् देव या सद्गुरु के उपदेश को भक्ति-भाव के साथ ग्रहण करते हैं और उस उपदेश के अनुसार अपने चित्त को उनके ध्यान में लीन करने का प्रयत्न करते हैं। जैन धर्म की इस उदार भावना की ओर संकेत करते हुए श्री जुगलकिशोर 'मुख्तार' ने बड़े ही सुन्दर ढंग से कहा है:
/ जिसने रागद्वेष कामादिक जीते, सब जग जान लिया। सब जीवों को मोक्षमार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया। बुद्ध, वीर, जिन, हरि, हर, ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कहो। भक्ति-भाव से प्रेरित हो, यह चित्त उसी में लीन रहो ।
अपने विचारों और कथनों को व्यापक और सर्वांगीण बनाने के लिए जैन धर्म स्यादवाद के सिद्धान्त को प्रस्तुत करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार अपने विचार, दृष्टिकोण और कथन को उदार, निष्पक्ष और सर्वग्राही (सभी मतों को शामिल करनेवाला) बनाना और इन्हें संकीर्णता, हठधर्मिता और पक्षपात से दूर रखना आवश्यक है। साम्प्रदायिकता के संकुचित विचारों और परस्पर मतभेद से होनेवाले वैर-विरोध और झगड़ों से अपने को ऊपर उठाये रखने में यह सिद्धान्त बहुत उपयोगी सिद्ध होता है। इसे समझाते हुए आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज कहते हैं:
यह (जैन) दर्शन ...पदार्थों के स्वरूप का स्याद्वाद की शैली से वर्णन करता है, क्योंकि यदि सापेक्षिक भाव से पदार्थों का स्वरूप वर्णन किया जाए तब किसी भी विरोध के रहने को स्थान उपलब्ध नहीं रहता।'
अपने ग्रन्थ, श्री जैनतत्त्व कलिका विकास, के लिखे जाने का मुख्य उद्देश्य बतलाते हुए वे कहते हैं:
मेरे अंत:करण में चिरकाल से यह विचार विद्यमान था कि, एक ग्रन्थ इस प्रकार से लिखा जाए जो परस्पर साम्प्रदायिक विरोध से सर्वथा विमुक्त हो।