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प्रस्तावना
में से भला कैसे किसी एक को सबसे बड़ा, सबसे ऊँचा और सबसे अधिक प्रकाशवान् बतला सकता है ? ज़मीन पर चलनेवाली चींटी भला पहाड़ के ऊँचे-ऊँचे शिखरों में से किसी एक के सबसे ऊँचे होने का सही अनुमान कैसे लगा सकती है ?
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प्राचीन सन्तों, महात्माओं या तीर्थंकरों ने अपनी कठिन साधना द्वारा अपनी आत्मा के स्वरूप को पहचाना और दयापूर्वक जीवों के कल्याण के लिए यह समझाया कि यह आत्मा ही जीवन का सार है । यही समस्त ज्ञान और आनन्द का भण्डार है। अपनी आत्मा के सच्चे स्वरूप को पहचानना ही धर्म है और यह धर्म ही मोक्ष का साधन है । अपने स्वरूप को पहचानकर आत्मा परमात्मा बन जाती है। इससे स्पष्ट है कि धर्म अपने-आपमें बुरा नहीं है । यह तो आत्मा को पवित्र करनेवाला और इसे सदा के लिए सुख - शान्ति प्रदान करनेवाला है । पर अपनी बुरी भावनाओं, द्वेषपूर्ण मनसूबों और क्रूर कर्मों द्वारा मनुष्यों ने इसे बदनाम कर रखा है ।
सभी जैन तीर्थंकरों और आचार्यों ने आत्मतत्त्व को ही पहचानने का उपदेश दिया है। आत्मा राग-द्वेष, मोह आदि विकारों के कारण अपने को शरीर, इन्द्रियों आदि से भिन्न नहीं समझ पाती और इस कारण सदा दुःख भोगती रहती है। इन राग-द्वेष, मोह, काम, क्रोध, मान आदि विकारों पर पूर्ण विजय प्राप्त कर अपनी आत्मा के अनन्त ज्ञानमय और आनन्दमय स्वरूप का अनुभव प्राप्त कर लेनेवाले को 'जिन' (विजेता) कहते हैं और जो 'जिन' के बताये मार्ग पर चलते हैं उन्हें जैन कहा जाता है । अनेक समयों और अनेक स्थानों में आये अनेक जैन तीर्थंकरों और आचार्यों ने बिना किसी भेद-भाव के सबको सदा समान रूप से आत्मतत्त्व का अनुभव प्राप्त करने का उपदेश दिया है । वे अपने उपदेश को किसी चहारदीवारी में बन्द नहीं करते । वे कोई नया धर्म, सम्प्रदाय या मज़हब नहीं बनाते । सत्य का अनुभव प्राप्त कर उसकी जानकारी देनेवाले इन महापुरुषों को जैन धर्म के अनुसार जिन, महावीर, अर्हत्, बुद्ध, ब्रह्म, हरि, देव, परमात्मा आदि अनेक नामों से पुकारा जा सकता है । अथवा उन्हें इन सभी नामों से परे या स्वतन्त्र भी कहा जा सकता है। जैन धर्म के सच्चे अनुयायी इन नामों के झगड़ों में नहीं पड़ते । वे अपने को इस शब्द - जाल
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