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________________ गुरु क्योंकि तीनों लोकों में यह बात निश्चित है कि गुरुओं द्वारा प्राप्त हुए ज्ञान के बिना ये संसारी जीव कभी शोभायमान नहीं होते। 17 सांसारिक बन्धन से छुटकारा पाकर मोक्षधाम प्राप्त करने की इच्छा रखनेवाला जीव किस प्रकार सद्गुरु के पास जाकर उनसे विनयपूर्वक दीक्षा (आध्यात्मिक ज्ञान - दान) की याचना करता है और किस प्रकार दयालु सद्गुरु कृपा कर उसकी अभिलाषा पूरी करते हैं, इसका वर्णन जैन पुस्तक राम कथा में भी इन शब्दों में किया गया है: जा चारण- साधु (प्रशंसक साधुजन) चरण- तट, करके सविनय उन्हें प्रणाम । * 171 दें भगवन् जिन दीक्षा मुझ को, पाऊँ जिससे शिवपुर (मोक्ष) धाम । भव के दुःखदायक भोगों से, मैं हूँ मन में अधिक उदास । तोड़ दीजीये हे करुणा-धन, कृपया मेरा यह भव पाश । मुनि बोले हे हे ! भव्योत्तम (श्रेष्ठ), आया तुम को दिव्य विचार । ऐहिक (सांसारिक) दिव्य सुखों को तजकर, बिरले करें आत्म उद्धार ॥ 18 वास्तव में सांसारिक बन्धन को नष्ट करनेवाले सच्चे ज्ञान का भेद (गुरु-दीक्षा) जीवों को सद्गुरु की कृपा से ही प्रसादरूप में प्राप्त होता है । प्रसाद कृपा करके दिया जाता है, ज़बरदस्ती लिया नहीं जा सकता। सद्गुरु कृपाकर अधिकारी जीवों (चुने हुए पात्रों) को दीक्षा ( सच्चा ज्ञान - दान) देते हैं। इस दीक्षारूपी बीज से ही पारमार्थिक ज्ञान का वृक्ष विकसित होता है जो मोक्ष का फल देता है। सच्चे गुरु से प्राप्त की गयी दीक्षा कभी निष्फल नहीं होती। वह अवश्य ही पुरुषार्थी शिष्य को मोक्ष का फल प्रदान करती है। इसीलिए ऊपर के पद में मोक्ष-धाम का इच्छुक जीव सद्गुरु से विनयपूर्वक दीक्षा का दान माँगता है । * जिनके चरणरूपी पवित्र किनारे को प्रशंसक साधुजन, अर्थात् सज्जनगण ( मन ही मन ) विनयपूर्वक प्रणाम कर यह प्रार्थना करते हैं ।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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