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________________ 170 जैन धर्मः सार सन्देश विद्या सिखलाकर सांसारिक विषयों का ज्ञान देते हैं और दीक्षागुरु आध्यात्मिक विद्या का भेद देकर आत्मिक प्रकाश प्रदान करते हैं। पर जीव का सच्चा कल्याण दीक्षागुरु द्वारा ही होता है, क्योंकि उन्हीं की कृपा और सहायता से जीव अपना परमार्थ सिद्ध करता है तथा दूसरों को भी परमार्थ का उपदेश दे सकता है, अथवा धर्मग्रन्थों की रचना द्वारा उन्हें आत्मशुद्धि और मोक्ष-प्राप्ति का मार्ग दिखला सकता है। इसीलिए आचार्य कुन्थुसागरजी महाराज अपने श्रावक प्रतिक्रमणसार नामक ग्रन्थ में अपने विद्यागुरु से पहले अपने परम पूज्य दीक्षागुरु श्री शान्तिसागरजी महाराज को कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करते हैं और उन्हें सुख और शान्ति का समुद्र' बतलाकर उनकी महिमा प्रकट करते हैं। वे स्पष्ट कहते हैं कि उनकी कृपा के प्रसाद से ही मैं इस पवित्र ग्रन्थ की रचना कर सका हूँ': दीक्षागुरो में सुख-शान्ति सिन्धोः... कृपाप्रसादाद् शास्त्रं मयेदं रचितं पवित्रम्।6 सुधर्मोपदेशामृतसार में भी बड़ी ही स्पष्टता के साथ यह बतलाया गया है कि सद्गुरु अर्थात् सच्चे या श्रेष्ठ गुरु की कृपा से ही आन्तरिक आँख खुलत है, आन्तरिक प्रकाश प्रकट होता है और अन्त में आत्मा सच्ची शोभा प्राप्त करती है: कृपाप्रसादाद्भुवि सदगुरोश्च विज्ञानचक्षुः प्रकटीभवेद्धि। तेनैव विज्ञानविलोचनेन पलायतेऽज्ञानतमःप्रपंचः ॥ सूर्योदयादेव तमो यथा हि ज्ञात्वेति कार्यो गुरुसंग एव। निश्चीयते वेति ततस्त्रिलोके न भांति लोका गुरुबोधशून्याः॥ अर्थ-इस संसार में श्रेष्ठ गुरुओं की कृपा के प्रसाद से इन संसारी जीवों के ज्ञानरूपी नेत्र प्रकट हो जाते हैं तथा जिस प्रकार सूर्य के उदय होने से अंधकार सब नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार उस ज्ञानरूपी नेत्र के द्वारा अज्ञानरूपी अंधकार का समूह सब नष्ट हो जाता है। यही समझकर गुरुओं का समागम सदाकाल करते रहना चाहिए;
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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