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________________ 169 वीतरागी आत्मज्ञानी महात्मा या गुरु सदा संसार में विद्यमान रहते हैं, जैसा कि वीतरागविज्ञान का उपदेश देते हुए कानजी स्वामी स्पष्ट रूप से कहते हैं: चैतन्य का वीतरागविज्ञान सुखरूप है, और ऐसे वीतरागविज्ञानरूप धर्म को साधकरके अनादिकाल से जीव मुक्त होते रहते हैं। वीतराग-विज्ञानवंत जीव (वीतरागी आत्मज्ञानी महात्मा) जगत् में सदाकाल विद्यमान होते ही हैं। अतः मुक्ति के लिए तुम भी वीतरागविज्ञान करो।4 संसार के केवल अचेतन विषय ही जीव के लिए दुःखदायी नहीं होते, बल्कि सांसारिक विषयों में आसक्त अपने निकट सम्बन्धी भी अपने मोह में फँसाकर जीव को संसार में अटकाये रखते हैं और उसके दुःख का कारण बनते हैं। एकमात्र गुरुदेव ही, जो उसे मोक्ष-मार्ग दिखलाकर संसार से मुक्त करते हैं, उसके सच्चे मित्र, बन्धु या हितैषी हैं। ज्ञानार्णव में स्पष्ट कहा गया है: हे आत्मन् ! जो तुझे संसार के चक्र में डालते हैं, वे तेरे बांधव (हितैषी) नहीं है; किन्तु जो मुनिगण (गुरुमहाराज) तेरे हित की बांछा करके (इच्छा रखकर) बंधुता करते हैं, अर्थात् हित का उपदेश करते हैं, तथा मोक्ष का मार्ग बताते हैं, वे ही वास्तव में तेरे सच्चे और परममित्र हैं।15 जैन धर्म के अनुसार जीव के कल्याण के लिए गुरु अत्यन्त ही आवश्यक है। केवल गुरुदेव ही जीव को आध्यात्मिक दीक्षा प्रदान कर सकते हैं तथा गुरु की कृपा और सहायता से ही वह मोक्ष-मार्ग की कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होता है। संसार में साधारणतया दो प्रकार के गुरुओं का उल्लेख किया जाता है: पहले को विद्या गुरु और दूसरे को दीक्षा गुरु कहते हैं। लिखना-पढ़ना सिखानेवाले तथा छोटे-बड़े विद्यालयों में संसार के अनेक विषयों की शिक्षा देनेवाले को विद्यागुरु कहते हैं। पर जो दीक्षा या परमार्थ का भेद देकर जीव के आन्तरिक अन्धकार को दूर करते तथा मोक्ष-मार्ग को प्रकाशित करते हैं और इस प्रकार जीव को वास्तविक सुख और शान्ति की प्राप्ति कराते हैं, उन्हें दीक्षागुरु कहा जाता है। ये दोनों ही उपकारी हैं तथा सत्कार और नमस्कार के योग्य हैं, क्योंकि विद्यागुरु सांसारिक
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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