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जैन धर्म: सार सन्देश
इस प्रकार हम पाते हैं कि जैन धर्म में अरहंत देव या परम गुरु का स्थान सर्वश्रेष्ठ है और वे ही शास्त्रों की प्रामाणिकता के आधार हैं। वे प्रत्यक्ष ज्ञान दाता हैं, जबकि शास्त्रों का ज्ञान ज्ञानियों की सहायता से अप्रत्यक्षरूप से प्राप्त किया जाता है। इसीलिए कुन्थुसागर जी महाराज बड़ी ही स्पष्टता के साथ कहते हैं: इस संसार में सबसे उत्तम पदार्थ भगवान् अरहंतदेव हैं, उनके कहे हुए शास्त्र हैं।12
अरहंत देव सर्वज्ञ (केवली) होते हैं और जीवों को मोक्ष-मार्ग का उपदेश देकर वे उनका सबसे बड़ा उपकार करते हैं। ज्ञानार्णव में उनकी महिमा और परोपकार का उल्लेख इन शब्दों में किया गया है:
ऐसे केवली (सर्वज्ञ) भगवान् शील और ऐश्वर्य सहित पृथ्वीतल में विहार करते हैं। वे विभु (प्रभु) सर्वज्ञ भगवान् पृथ्वीतल में विहार करके जीवों के द्रव्यमल और भावमल रूप मिथ्यात्व को जड़ से नाश करते हैं और समस्त भव्य (मोक्षार्थी) जीवरूपी कमलों की मंडली (समूह) को प्रफुल्लित करते हैं। भावार्थ-जीवों के मिथ्यात्व को दूर करके उनको मोक्ष-मार्ग में लगाते हैं।
सच्चा सुख अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप की प्राप्ति में ही है। पर अनाड़ी जीव संसार के अचेतन विषयों को सुख का साधन समझ उनमें सुख ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं। गुरु जीवों की इस मिथ्यादृष्टि को दूर कर यह बतलाते हैं कि सच्चा सुख चैतन्य में ही है और आत्मा चैतन्यमय है। इसलिए आत्मज्ञान में ही सच्चा सुख है; आत्मज्ञान के बिना सब दुःख ही दुःख है। चैतन्यस्वरूप आत्मा का पूर्ण ज्ञान या अनुभव हो जाने पर जीव को संसारी विषयों से विराग या अनासक्ति हो जाती है। वह वीतरागी बन जाता है। इसीलिए जैन धर्म में वीतरागविज्ञानरूप धर्म को साधने का उपदेश दिया जाता है और यह बताया जाता है कि सच्चे सुख को प्राप्त करने या वीतरागी बनने की इच्छा रखनेवालों के हित के लिए