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________________ 167 उसके अनुसार गणधरदेव अंगप्रकीर्णरूप ग्रन्थ गूंथते हैं तथा उनके अनुसार अन्य-अन्य आचार्यादिक नानाप्रकार ग्रंथादिक की रचना करते हैं। उनका कोई अभ्यास करते हैं, कोई उनको कहते हैं, कोई सुनते हैं-इस प्रकार परम्परामार्ग चला आता है। 10 ___ इस प्रकार तीर्थंकर, देव या परम गुरु दिव्यध्वनि द्वारा अधिकारी जीवों को उपदेश देकर अर्थात् दिव्यध्वनि के सम्पर्क में लाकर उन्हें प्रत्यक्ष रूप से पारमार्थिक ज्ञान प्रदान करते हैं, जबकि गणधरादि ग्रन्थकर्ता शास्त्रों के माध्यम से उस ज्ञान को परोक्षरूप से प्रस्तुत करते हैं जिसे जीव अपनी बुद्धि द्वारा ग्रहण करने या समझने का प्रयत्न करते हैं। तीर्थंकरों या परम गुरु की दिव्यध्वनि पर आधारित होने के कारण ही सद्ग्रन्थों या शास्त्रों को प्रामाणिक माना जाता है। पर शास्त्रों के मर्म को समझने के लिए किसी सच्चे ज्ञानी गुरु की आवश्यकता होती है, अन्यथा उनका सही मर्म न समझने के कारण अनाड़ी जीवों को उनसे लाभ के बदले हानि हो सकती है। इस बात को समझाते हुए हुकमचन्द भारिल्ल कहते हैं: जैसे औषधि-विज्ञान सम्बन्धी शास्त्रों में अनेक प्रकार की औषधियों का वर्णन होता है। यद्यपि सभी औषधियाँ रोगों को मिटानेवाली ही हैं, तथापि प्रत्येक औषधि हर एक रोगी के काम की नहीं हो सकती। विशेष रोग एवं व्यक्ति के लिए विशेष औषधि विशिष्ट अनुपात के साथ निश्चित मात्रा में ही उपयोगी होती है। यही बात शास्त्रों के कथनों पर भी लागू होती है। अत: उनके मर्म को समझने में पूरी-पूरी सावधानी रखनी चाहिये, अन्यथा ग़लत औषधि सेवन के समान लाभ के स्थान पर हानि की सम्भावना अधिक रहती है। शास्त्रों में उल्लिखित विषयों को उसके पूर्वापर प्रसंग और संदर्भ में समझना बहुत आवश्यक है, अन्यथा उसका सही भाव समझ पाना सम्भव नहीं होगा। शास्त्र स्वयं बोलते नहीं हैं, उनका मर्म हमें स्वयं (अपने निजी ज्ञान के आधार पर) या योग्य ज्ञानियों के सहयोग से निकालना पड़ता है।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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