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________________ 166 जैन धर्म: सार सन्देश को आध्यात्मिक साधना में पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है और वे जीते-जी उच्चतम अविनाशी पद प्राप्त कर चुके होते हैं। पर आचार्यादि गुरु सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र में उच्चता प्राप्त कर लेने पर भी अभी उच्चतम आध्यात्मिक पद की प्राप्ति के लिए यत्नशील होते हैं। अरहंत भगवान् की तरह इन्हें भी धर्मोपदेश देने का अधिकार होता है। इस प्रकार संक्षेप में जैन धर्म के अनुसार गुरु वही कहला सकता है जो सम्यग्दर्शन (आन्तरिक अनुभव पर आधारित सच्ची श्रद्धा),सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र से युक्त हो और रागादि विकारों से मुक्त होकर एकमात्र जीवों के कल्याण के लिए सच्चे मोक्ष-मार्ग का उपदेश देता हो। इस सम्बन्ध में हुकमचन्द भारिल्ल ने कहा है: सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के द्वारा जो महान बन चुके हैं, उनको गुरु कहते हैं। जो स्वयं विकारग्रस्त हों और संसार से वीतराग या उदासीन नहीं हुए हों वे दूसरों को विकारमुक्त और वीतरागी होने का उपदेश कैसे दे सकते हैं ? इसलिए गुरु स्वयं राग, द्वेष मोहादि विकारों से मुक्त होकर समत्व-भाव धारणकर संसार में विचरते हैं और जीवों को उनके उद्धार का मार्ग बतलाते हैं। इसलिए गुरु को मुक्तिदाता कहते हैं। __जैन धर्म में देव और गुरु के साथ ही शास्त्र को भी आदरणीय स्थान प्राप्त है, क्योंकि शास्त्र द्वारा जीवों को परमार्थ-सम्बन्धी शिक्षा प्राप्त होती है तथा मोक्ष-मार्ग पर चलने की प्ररेणा मिलती है। वास्तव में सच्चे शास्त्र या सद्ग्रन्थ तीर्थंकर या परमगुरु की दिव्यध्वनि पर ही आधारित माने जाते हैं। इसलिए वे हितकारी हैं तथा आदर और सत्कार के योग्य हैं। वे केवली (सर्वज्ञ) तीर्थंकर की परम्परा को बनाये रखने में सहायक होते हैं, जैसा कि पण्डित टोडरमल ने अपने मोक्षमार्गप्रकाशक में स्पष्ट किया है: अनादि से तीर्थंकर केवली (सर्वज्ञ) होते आये हैं, उनको सर्व का ज्ञान होता है; ...पुनश्च, उन तीर्थंकर केवलियों का दिव्य ध्वनि द्वारा ऐसा उपदेश होता है जिससे अन्य जीवों को पदों का एवं अर्थों का ज्ञान होता है;
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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