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जो कोई सम्यक्त्वपूर्वक ज्ञान को प्राप्त करके आत्मानुभव करेगा वह संसार-समुद्र से उसी तरह पार हो जायेगा जिस तरह हमने पार पा लिया है। उनकी इस सम्यक् शिक्षा को जो ग्रहण करते हैं व उसपर चलते हैं वे भी शीघ्र संसार-समुद्र से पार हो जाते हैं और उस मोक्षलक्ष्मी को पा लेते हैं जिसके लिए सन्त पुरुष निरन्तर भावना किया करते हैं व जिसका कभी क्षय नहीं होता है तथा जो कर्ममल से रहित निर्मल है। आचार्य कहते हैं कि जो स्वयं तर गये हैं उनके द्वारा यदि दूसरे तार लिए जायें तो कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है। जो जहाज़ स्वयं तरता है वही दूसरों को भी अपने साथ पार कर देता है। तात्पर्य यह है कि हमको श्री अरहंत भगवान् की परमोपकारिणी शिक्षा के ऊपर चलकर अपना आत्मोद्धार कर लेना चाहिए।'
इन कथनों से स्पष्ट है कि पंचपरमेष्टी में जिन पाँचों को शामिल किया गया है वे सभी पूजनीय और नमस्कार-योग्य हैं। पर जीव-कल्याण की दृष्टि से इन सब में अरहंत भगवान् या सच्चे सन्त सद्गुरु ही जीव के सबसे अधिक हितकारी हैं। इसीलिए उन्हें 'परमगुरु' कहा गया है। वे अपनी दिव्यध्वनि द्वारा सच्चे मोक्ष-मार्ग का उपदेश देकर जीवों को संसार से मुक्त करते हैं।
जीवों का कल्याण मोक्ष-प्राप्ति में ही है। इसीलिए जैन धर्म में गुरु को जीव-कल्याण के लिए अत्यन्त आवश्यक माना गया है। यों तो साधारण बोलचाल की भाषा में जो भी किसी प्रकार का ज्ञान देता है उसे हम गुरु कह देते हैं। पर जीवों के परमहित या मोक्ष के प्रंसग में अरहंत भगवान को ही परम गुरु माना जाता है। - अरहंत भगवान् के अतिरिक्त जैन धर्म में आचार्य, उपाध्याय और साधु को भी गुरु का पद प्राप्त है। इसीलिए उनका उल्लेख पंचपरमेष्टी में किया जाता है। वास्तव में वे ही लोक में विशेष रूप से गुरु के नाम से प्रसिद्ध हैं, क्योंकि अरहंत भगवान् का पाया जाना दुर्लभ माना जाता है। हुकमचन्द भारिल्ल ने वीतराग सर्वज्ञ अरहंत भगवान् को 'परमगुरु' और शेष आचार्यादि को 'अपरमगुरु' या 'परम्परा गुरु' कहा है। वीतराग सर्वज्ञ अरहंत भगवान्