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________________ 164 जैन धर्म: सार सन्देश ____अरहंत भगवान् को सच्चा 'हितोपदेशी' बताते हुए हुकमचन्द भारिल्ल बड़ी ही स्पष्टता के साथ कहते हैं: आत्मा का हित सच्चे सुख की प्राप्ति में ही है और सच्चा सुख निराकुलता (शान्ति की अवस्था) में ही होता है। आकुलता (अशान्ति) मक्ति में नहीं है, अत: मक्ति के मार्ग में लगना ही प्रत्येक सुखाभिलाषी का कर्तव्य है। मुक्ति के मार्ग का उपदेश ही हितोपदेश है। अरहन्त भगवान् की दिव्य-वाणी में मुक्ति के मार्ग का ही उपदेश आता है, अतः वे ही हितोपदेशी हैं। उनकी वाणी के अनुसार ही समस्त जिनागम (जैन शास्त्र) लिखा गया है। गणेशप्रसाद वर्णी भी अरहंत भगवान् को 'परम गुरु' कहते हुए उनकी सर्वाधिक महत्ता और परोपकारिता इन शब्दों में व्यक्त करते हैं: उनमें (पंचपरमेष्टी में) से अरहंत भगवान् तो परम गुरु हैं जिनकी दिव्य ध्वनि से संसार-आतप (दुःख) के शान्त होने का उपदेश जीवों को मिलता है।...जिन उपायों को श्रीगुरु ने दर्शाया है उनके साधन से अवश्यमेव वह पद (जिसे स्वयं श्री गुरु ने प्राप्त किया है) अनायास प्राप्त हो जावेगा। इस प्रकार अर्हन्त भगवान् या सच्चे गुरु ने दिव्यध्वनि के द्वारा जीवों के उद्धार का ऐसा मार्ग दर्शाया है जिसे अपनाकर जीव निश्चित रूप से संसार-सागर को पार करने में सफल होते हैं। यह अरहंत भगवान् या सच्चे सन्त सद्गुरु का जीवों के प्रति सबसे बड़ा उपकार है। अरहंत भगवान् के इस महान् उपकार को स्पष्टता से समझाते हुए तत्त्वभावना में कहा गया है: जो स्वयं जिस काम को सिद्ध कर लेता है वह उस काम में दूसरे को भी लगाकर उसका उद्धार कर सकता है। अर्हन्त भगवान् सम्यग्ज्ञान की सेवा करके स्वयं कर्मों के बंधन से छूटकर स्वाधीन (मुक्त) हो गये। वे अपनी दिव्यवाणी से इसी प्रकार की शिक्षा देते हैं कि
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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