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163 ___पण्डित टोडरमल ने अपने ग्रन्थ मोक्षमार्गप्रकाशक में इस तथ्य का स्पष्टीकरण इन शब्दों में किया है:
यहाँ सिद्धों से पहले अरहंतों को नमस्कार किया सो क्या कारण? ऐसा संदेह उत्पन्न होता है। उसका समाधान यह है:-नमस्कार करते हैं सो अपना प्रयोजन सधने की अपेक्षा से करते हैं; सो अरहंतों से उपदेशादिक का प्रयोजन विशेष सिद्ध होता है, इसलिए पहले नमस्कार किया है।
हुकमचन्द भारिल्ल ने भी सच्चे गुरु अरहंत भगवान् को जीव का सच्चा हितकारी बताते हुए जीवों के हित की दृष्टि से उन्हें सिद्ध भगवान् से भी अधिक महत्त्वपूर्ण माना है। वे कहते हैं:
अरहंत और सिद्ध परमेष्ठी सच्चे देव हैं। ...सच्चे देव को परमात्मा, भगवान्, आप्त (विश्वसनीय उपदेशक) आदि नामों से अभिहित किया जाता (पुकारा जाता) है। यद्यपि सामान्य कथनानुसार ये शब्द सभी एकार्थवाची हैं तथापि आप्त शब्द अपनी कुछ अलग विशेषता रखता है।
जो वीतरागी और सर्वज्ञ हों वे सभी भगवान हैं, परमात्मा हैं, सच्चे देव हैं। किन्तु आप्त में एक विशेषता और होती है जो अन्य में नहीं। आप्त वीतरागी और सर्वज्ञ होने के साथ-साथ हितोपदेशी भी होते हैं। सभी भगवान् हितोपदेशी नहीं होते हैं। सिद्ध भगवान् के तो वाणी का संयोग है ही नहीं। सच्चे देव की परिभाषा में हितोपदेशी विशेषण आप्त की अपेक्षा से है।
पूर्व काल में पूर्ण आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त कर मोक्षपद को प्राप्त कर चुके सिद्ध भगवान् से मोक्ष-मार्ग का उपदेश देनेवाले अरहंत भगवान् (सच्चे गुरु) का अन्तर बतलाते हुए वे फिर कहते हैं:
यदि देव साक्षात् मोक्षस्वरूप हैं तो गुरु साक्षात् मोक्षमार्ग हैं। वे एक प्रकार से चलते-फिरते सदेह सिद्ध हैं।