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जैन धर्म : सार सन्देश इस सम्बन्ध में कुन्थुसागरजी महाराज बड़ी ही स्पष्टता के साथ कहते हैं: इस प्रकार विचार करने से सिद्ध होता है कि सिवाय मनुष्य के और कोई भी अपना कल्याण नहीं कर सकता तथा यह भी निश्चित है कि मनुष्यपर्याय (जन्म) बड़ी कठिनता से प्राप्त होता है। ऐसा कठिन मनुष्य पर्याय प्राप्त कर लेने पर भी वीतराग निर्ग्रन्थ (राग, मोह आदि से रहित और कर्मबन्धनों से मुक्त) गुरुओं का समागम बहुत ही बड़े शुभ कर्म के उदय से होता है। ऐसे निर्ग्रन्थ गुरुओं के समागम में भी जो मनुष्य प्रमाद (ग़फ़लत) करता है, अपने आत्मा का कल्याण नहीं करता, वह अपने मनुष्य-जन्म को व्यर्थ ही खो देता है। एक बार खोया हुआ मनुष्य-जन्म बार-बार नहीं मिलता।'
जीव का कल्याण मोक्ष की प्राप्ति में ही है। इसलिए जो मोक्ष की प्राप्ति में जीव का सबसे अधिक सहायक हो उसे ही परमेष्ट (परम इष्ट), अर्थात् सबसे प्रिय और पूजनीय मानना चाहिए। पारमार्थिक पद और महत्त्व की दृष्टि से जैन धर्म में क्रमश: अरहंतों, सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों और समस्त साधुओं को परमेष्ट मानकर इन्हें नमस्कार किया जाता है। इन पाँचों परमेष्ट के समूह को पंचपरमेष्टी कहते हैं।
इनमें से पहले और दूसरे, अर्थात् अरहंत और सिद्ध का पद सबसे ऊँचा है, क्योंकि वे परमात्मपद को प्राप्त कर चुके होते हैं। इसलिए उन्हें सच्चा देव, परमात्मा या भगवान् भी कहा जाता है। जो अपनी आध्यात्मिक साधना में पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर लोकाकाश के शिखर पर स्थित हो जाते हैं उन्हें सिद्ध कहते हैं। सिद्ध भगवान् का मनुष्यरूप समाप्त हो गया होता है। वे संसारी जीवों की बुद्धि-वाणी की पहुँच से परे होते हैं। इसलिए संसारी जीव उनसे साधारण रूप में सम्पर्क नहीं कर सकते। पर अरहंत आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करके भी अन्य चार परमेष्टी की तरह मनुष्यरूप में होते हैं। वे वीतरागी सर्वज्ञ महात्मा या सन्त जीवों के कल्याण के लिए संसार में विचरते हैं और अपने उपदेश द्वारा जीवों का कल्याण करते हैं। उनकी इसी विशेषता के कारण जैन ग्रन्थों में उनके नाम का उल्लेख पंचपरमेष्टी में सर्वप्रथम (सिद्धों से भी पहले) किया जाता है।