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जैन धर्म: सार सन्देश में आसक्त रहता है, तबतक उसकी आत्मिक उन्नति नहीं हो सकती, उलटे उसकी अधोगति ही होती है।
परमात्मा बनने की शक्ति रखनेवाला मनुष्य यदि अपनी शक्तियों का सदुपयोग न कर उलटे उनका दुरुपयोग करता है तथा अन्य जीवों पर दया न कर उन्हें कष्ट पहुँचाता है और इस प्रकार अपने हित की हानि करता है तो उसे दानव नहीं तो और क्या कहेंगे? इसी भाव को व्यक्त करते हुए गणेशप्रसाद वर्णी कहते हैं:
मानव जाति सबसे उत्तम है, अतः उसका दुरुपयोग कर उसे संसार का कण्टक मत बनाओ। इतर जाति को कष्ट देकर मानव जाति को दानव कहलाने का अवसर मत दो। 58
जो अपने सच्चे हित या आत्म-कल्याण का कार्य करने में आलस या टाल-मटोल करता है और अपने से भिन्न सांसारिक वस्तुओं और व्यक्तियों को अपना बनाने में लगा रहता है, वह अपने अनमोल मनुष्य-जीवन को निरर्थक ही गँवा देता है। संसारी मनुष्य अपने सम्बन्धियों और पारिवारिक व्यक्तियों को मोहवश अपना समझता है। पर वे न तो अपने हैं और न कभी अपना बन ही सकते हैं। वे केवल अपने स्वार्थवश उसे घेरे रहते हैं। अपना स्वार्थ पूरा हो जाने पर वे उसके पास भी नहीं फटकते। मनुष्य की यह बहुत बड़ी भूल है कि वह आत्म-कल्याण के दुर्लभ अवसर को सांसारिक व्यक्तियों और पदार्थों के मोह में पड़कर बरबाद कर देता है। इस भूल से बचे रहने के लिए गणेशप्रसाद वर्णी हमें इन शब्दों में चिताते हैं:
आज काल कर जग मुवा किया न आतम काज। पर पदार्थ को ग्रहण कर भई न नेकहु लाज॥ जिनको चाहत तूं सदा वह नहिं तेरा होय। स्वार्थ सधे पर किसी की बात न पूँछे कोय॥१/