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________________ 158 जैन धर्म : सार सन्देश को छोड़कर विषयासक्ति रूप पत्थर को गले में लगाकर इस संसाररूप समुद्र में डूबता है, अर्थात् भ्रमण करता है। 53 आवागमन के चक्र से निकलने के एकमात्र अवसर, मानव-जीवन को सासारिक विषयों के लोभ और मोह के चलते बरबाद करना, अन्धे का जेल की दीवार को टटोलते हुए उसके एकमात्र दरवाज़े पर आते समय शरीर खुजलाने या अन्य इसी प्रकार के काम में लग जाने के कारण उससे न निकल पाने के समान है। ऐसा करने से वह जेल से निकलने के एकमात्र अवसर को खो देता • है। इस उपमा द्वारा चम्पक सागरजी महाराज मनुष्य - जीवन के इस एकमात्र अवसर को हाथ से न निकलने देने के लिए हमें सजग करते हैं। वे कहते हैं: जैसे कोई अन्धा मनुष्य मीलों लम्बे चौड़े परकोटे में भटक रहा है जिसमें कि केवल एक ही द्वार बाहर निकलने का बना हुआ है। वह बेचारा अन्धा दीवाल के सहारे हाथों से टटोलता हुआ उस परकोटे का चक्कर लगाता है। चक्कर लगाते-लगाते जब वह द्वार आता है तब दुर्भाग्य से उसको कभी खुजली हो उठती है जिसको खुजाने के लिए चलता हुआ ज्यों ही हाथ उठाता है कि वह द्वार निकल जाता है, फिर सारा चक्कर लगाना पड़ता है। कभी उसी द्वार के आने पर छाती में पीड़ा होने लगती है, तब टटोलनेवाला हाथ छाती पर जा लगता है, समीप आया हुआ द्वार छूट जाता है, फिर उसे सारा चक्कर लगाना पड़ता है। इसी तरह जन्मभर चक्कर लगाते-लगाते बेचारा उस परकोटे से बाहर नहीं हो पाता । इसी तरह संसारी जीव को बन्दीगृह (जेल) में चक्कर लगाते-लगाते एक मनुष्य भव ऐसा मिलता है जिसके द्वार से यह संसार के बन्दीघर से बाहर निकल सकता है । किन्तु उस समय घर, परिवार, मित्र, परिकर ( घर के लोग), धन संचय के मोह में आकर अपना समय बिता देता है । मनुष्य भव गया कि संसार जेल से निकलने का द्वार भी जीव के हाथ से निकल गया। जब कभी सौभाग्य से मनुष्य का शरीर मिला तब फिर पुत्र - मोह, शत्रु-द्वेष, कन्या के जीवन की चिन्ता, दरिद्रता से युद्ध आदि में फँसकर उस सुवर्ण (सुनहले) अवसर से लाभ नहीं ले पाता। 54
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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