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मानव-जीवन
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रहता है तो उसका मनुष्य-जीवन निरर्थक ही माना जायेगा। इसे समझाते हुए नाथूराम डोंगरीय जैन कहते हैं:
जो मनुष्य केवल धन कमाने में ही रात-दिन एड़ी से चोटी तक पसीना बहाता रहता है और धर्म-कर्म को भूल जाता व उस धन का उचित रूप से स्वयं भोग नहीं करता तथा न दूसरों की सहायता व परोपकार करता है, वह भोजन की परोसी हुई थाली को ठुकरा कर लंघन करनेवाले (बिना खाये-पीये रहनेवाले) मनुष्य के समान ही मूर्खता करता है, और केवल क्लेश का पात्र होता है । आख़िर वह धन कमाता किस लिए है ? ऐसे ही जो मनुष्य केवल धन कमाने और खाने पीने, मौज उड़ाने में ही मस्त होकर आत्मोन्नति के लिए धर्म साधन करना व मोक्ष पुरुषार्थ की ओर लक्ष्य रखना नहीं चाहता या भ्रमवश उन्हें भूल जाता है तो निःसन्देह वह पशु से भी बदतर अपने जीवन को मनुष्यत्व व कर्त्तव्यहीन बनाकर बरबाद करता हुआ कौए को उड़ाने के लिए क़ीमती रत्न को फेंक देने की मूर्खता करता है; क्योंकि मानव जीवन का उद्देश्य पशुओं की भाँति जैसे तैसे पेट भर लेना और भोग विलास कर लेना ही नहीं हैं। 51
चम्पक सागरजी महाराज ने भी ऐसे ही विचार प्रकट किये हैं । वे कहते हैं:
ऐसे दुर्लभ मनुष्य भव (जन्म) को पाकर जो मूर्ख धर्म की साधना में यत्न नहीं करता है, वह महान् कष्ट से प्राप्त किये हुए चिन्तामणि रत्न को आलस्य से समुद्र में फेंक देता है। 52
वे फिर कहते हैं:
इस अपार संसार में महा कष्ट से मनुष्यभव प्राप्त कर जो मनुष्य विषय सुख की तृष्णा में अत्यन्त आसक्त हुआ आत्मचिंतवन, जिनेन्द्र पूजा, गुरु-वन्दना, जिन-वाणी का श्रवण, स्वाध्याय, संयम ... आदि धर्म को नहीं करता है तो वह मूर्ख शिरोमणि धर्मरूप जल्दी तरानेवाले जहाज़