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जैन धर्मः सार सन्देश ____ अपने अज्ञानवश इस मायामय संसार के मोह में पड़े रहनेवाले जीव अपने मन और इन्द्रियों को वश में नहीं रख पाते। मन और इन्द्रियों से प्राप्त विषय-सुख को ही सच्चा सुख मानकर वे सदा सांसारिक विषयों के पीछे दौड़ते रहते हैं। आत्मज्ञान प्राप्त कर सच्चे सुख की प्राप्ति करने का वे कभी भी प्रयत्न नहीं करते। इस कारण वे आवागमन के चक्र में पड़कर सदा दुःखी बने रहते हैं। उनकी इस दुर्दशा की ओर ध्यान दिलाकर कुंथुसागरजी महाराज उन्हें अज्ञान की नींद से जगाने का प्रयत्न करते हैं। वे कहते हैं:
हे आत्मन् ! तू अनादि काल से अत्यन्त भयंकर इस संसाररूपी महासागर में परिभ्रमण कर रहा है और इस प्रकार परिभ्रमण करते-करते अनन्तकाल व्यर्थ ही व्यतीत हो गया।
हे आत्मन् ! तू आज तक इंद्रिय और मन के सुखों में ही लगा आ रहा है तथा इन काल्पनिक और झूठे सुखों में लगे रहने के कारण ही तूने आज तक अनन्त सुख देनेवाले आत्मा के स्वभाव रूप धर्म का आराधन नहीं किया। इसीलिए हे आत्मन् ! जिनको हम लोग कभी मन से भी चिंतवन नहीं कर सकते ऐसे अकस्मात् होनेवाले व अन्य अनेक प्रकार के असह्य दुःख तुझे भोगने पड़े।
इस मायावी संसार के लुभावने विषयों के भोग से जीव को कभी भी तृप्ति नहीं होती। विषयों के झूठे सुख आख़िर दुःख में बदल जाते हैं और जीव को सदा दुःख ही भोगना पड़ता है, जैसा कि जैनधर्मामृत में कहा गया है:
दुःख से दूर भागनेवाला और सुख चाहनेवाला यह प्राणी मोह से अन्धा होकर भले-बुरे का विचार न करके जिस-जिस चेष्टा को करता है, उस-उससे वह दुःख को पाता है।
ऐसे मनुष्य पशुओं से भी बदतर हैं, क्योंकि पशु तो विवेक की शक्ति से रहित होने के कारण धर्म-साधना या आत्म-कल्याण के लिए प्रयत्न नहीं कर सकते। पर विवेक शक्ति के रहते हुए भी यदि मनुष्य आत्म-कल्याण के लिए प्रयत्न नहीं करता और केवल सांसारिक वस्तुओं के ही लोभ और मोह में फँसा