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मानव-जीवन
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परमात्मपद को प्राप्त करने के अथक प्रयत्न में लग जाता है, उसी का जीवन सार्थक है।
मानव-जीवन की निरर्थकता
कहा जा चुका है कि मनुष्य-योनि सभी योनियों में उत्तम है, क्योंकि केवल मनुष्य ही भले-बुरे की पहचान कर अपने कल्याण के लिए सफल प्रयत्न कर सकता है। इस दुःखमय संसार में जन्म लेकर भी वह सभी दुःखों को दूर कर परमसुख की प्राप्ति कर सकता है । अपना कल्याण करने के लिए उसे अपनी आत्मा के सच्चे स्वरूप को पहचानना और पर पदार्थों, अर्थात् अपनी आत्मा से भिन्न सांसारिक पदार्थों में आसक्ति न रखना अत्यन्त आवश्यक है। यदि अपने अज्ञानवश वह सांसारिक विषयों में ही फँसा रह जाता है और अपना जीवन पशुओं की तरह केवल खाने-पीने, सोने आदि में ही बिता देता है तो वह अपना मनुष्य-जीवन व्यर्थ ही गँवाकर इस संसार से चला जाता है। ऐसे मनुष्य का जीवन निरर्थक ही कहा जायेगा। गणेशप्रसाद वर्णी ने बड़े ही स्पष्ट रूप से कहा है:
मनुष्य वही प्रशस्त और उत्तम है जो आत्मीय वस्तु पर निज सत्ता रखे। (अर्थात् जो केवल अपनी आत्मा को ही अपना माने) जो (संसार की किसी वस्तु में निजत्व मानते हैं वे ही इस संसार के पात्र हैं, और नाना प्रकार की वेदनाओं के भी पात्र होते हैं ।
ऐसे भाव कदापि न करो (अर्थात् ऐसे विचारों को कभी भी अपने अन्दर न लाओ ) जिनके द्वारा आत्मा का अध:पात हो । अधःपात (नीचे गिरने) का कारण आसक्त प्रवृत्ति है । जब मनुष्य अधम काम करने में आत्मीय भावों को लगा देता है तब उसकी गणना मनुष्यों में न होकर पशुओं में होने लगती है। 47
इसी भाव को व्यक्त करते हुए कुंथुसागरजी महाराज भी कहते हैं:
उत्तम मनुष्य जन्म को पाकर ऐसा करना (विषय-वासनाओं में लगे रहना) अत्यन्त अयोग्य है । मनुष्य जन्म को पाकर तो इस आत्मा को सबसे पहले अपना कल्याण कर लेना चाहिए। 48