________________
154
जैन धर्म : सार सन्देश अपनी आत्मा से भिन्न पदार्थों में तू क्यों आसक्त हो रहा है? वे तेरे अपने नहीं। उनमें फँसकर तू क्यों दुःख उठा रहा है? दौलतरामजी कहते हैं कि हे जीव! इस अवसर को न गँवा। ___केवल साहसी और अपनी धुन के पक्के मनुष्य ही पारमार्थिक साधना के दुर्गम मार्ग पर दृढ़ता के साथ चलते और अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल होते हैं । कायर और आलसी जीवों का यह काम नहीं है। आलसी जीव केवल बाहर से राम-राम या किसी अन्य वर्णात्मक नाम का जाप करते हैं पर इस प्रकार के बाहरी जाप से उन्हें कोई विशेष लाभ नहीं होता। सच्चे साधक किसी सन्त या सतगुरु से दीक्षा और उपदेश ग्रहण कर दृढ़ता से अपने गुरु की बतायी युक्ति के अनुसार नाम का आन्तरिक जाप या सुमिरन करते हैं। इस तरह वे अपने अन्तर से माया को निकालकर परमात्मपद की प्राप्ति कर लेते हैं। इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाते हुए गणेशप्रसाद वर्णी कहते हैं:
दृढ़ता को धारण करहु तज दो खोटी चाल। बिना नाम भगवान के कटे न भवका जाल॥ राम राम के जाप से नहीं राममय होये।
घटकी माया छोड़ते आप राममय होय॥5/ चम्पकसागरजी महाराज ने भी स्पष्ट कहा है कि किसी सन्त या सद्गुरु की सेवा में लगकर ही; अर्थात् उनकी दीक्षा और उपदेश के अनुसार पारमार्थिक साधना करने पर ही, मनुष्य को संसार के नश्वर और दुःखमय होने का ज्ञान प्राप्त होता है और वह उससे छुटकारा पाकर मोक्ष के अनन्त सुख की प्राप्ति करता है:
तन मन की पीडा टले, भवका होवे ज्ञान।
संत चरण को सेवते, पावे सुख निधान ॥4/ दुःखमय संसार से छुटकारा पाकर परमात्मरूप बन जाना और सदा के लिए सुखी हो जाना ही मानव-जीवन का लक्ष्य है। इसलिए मनुष्य का जन्म पाकर जो किसी सन्त सद्गुरु की शरण लेकर जन्म-मरण के चक्र को मिटाने और