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________________ मानव-जीवन 153 अनुसार साधना या धर्माचरण करते रहना चाहिए । आलस और सुस्ती को छोड़ उसे समय रहते पूर्ण तत्परता से पारमार्थिक साधना को पूरी कर अपने मनुष्य-जीवन को सफल बना लेना चाहिए। ऐसा ही उपदेश जिन - वाणी में दिया गया है: इसीलिए जबतक बुढ़ापा आकर पीड़ा नहीं देने लगता, व्याधियों की वृद्धि नहीं हो पायी तथा इन्द्रियाँ शिथिल नहीं हुईं तब तक अर्थात् यौवन काल में ही धर्माचरण कर लेना योग्य है । तबतक हे जीव, तू अपना आत्म-हित कर ले। जो-जो रात्रि व्यतीत हो जाती है वह पुन: लौटती नहीं । ये सब रात्रियाँ धर्म न करनेवाले के लिए निष्फल ही निकलती जाती हैं । किन्तु धर्म-साधना करनेवाले के लिए वे रात्रियाँ सफल होती हुई जाती हैं। 43 छहढाला में भी बुढ़ापा और रोग से ग्रसित होने से पहले पूरी तत्परता के साथ समभाव को धारण कर अपना कल्याण कर लेने के लिए हमें इन शब्दों में चिताया गया है: इमि जानि आलस हानि साहस ठानि, यह सिख आदरौ, जबलों न रोग जरा गहै, तबलौं झटिति निज हित करौ । यह राग-आग दहै सदा, तातैं समामृत सेइये; चिर भजे विषय-कषाय अब तो, त्याग निजपद बेइये । कहा रच्यो पर पद में, न तेरो पद यहै, क्यों दुख सहै; अब “दौल'! होउ सुखी स्व पद-रचि, दाव मत चूकौ यहै। 44 * अर्थात् ऐसा जानकर आलस को छोड़कर और साहस के साथ संकल्प लेकर इस उपदेश को अपनाओ। जबतक रोग और बुढ़ापे ने शरीर को नहीं घेरा है तबतक शीघ्र अपनी आत्मा का कल्याण कर लो। यह रागरूपी (मोह, आसक्ति) आग जीवों को सदा जला रही है। इससे मुक्त होकर शान्ति पाने के लिए समतारूपी अमृत का पान करो। चिरकाल (अनन्त जन्मों) से तू विषयरूपी बन्धनकारी कर्मों का सेवन करता रहा है। अब भी तुम उनका त्याग कर आत्मपद की प्राप्ति करो ।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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