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________________ 152 जैन धर्म: सार सन्देश कल्याण का पथ निरीहवृत्ति (इच्छा या तृष्णारहित भाव) है। संसार मोहरूप है, इसमें ममता न करो। कुटुम्ब की रक्षा करो परन्तु उसमें आसक्त न होओ। जल में कमल की तरह भिन्न रहो, यही गृहस्थ को श्रेयस्कर है। कल्याण के अर्थ (लिए) भीषण अटवी (वन) में जाने की आवश्यकता नहीं, मूर्छा का (मोह से भ्रमित होने का) अभाव होना चाहिए। संसार में वही मनुष्य परमात्मपद का अधिकारी हो सकता है जो संसार से उदासीन है। संसार में अज्ञान का घोर अन्धकार फैला हुआ है जिसमें मनरूपी हाथी और काम, क्रोध आदि जहरीले सर्प जीवों को असह्य कष्ट देते हैं। ऐसी स्थिति में जीव गुमराह हो इधर-उधर भटकते हुए दुःख भोग रहे हैं। इस दुःख से छुटकारा पाने का एक ही उपाय है कि जीव किसी सन्त, महात्मा या पूर्ण ज्ञानी से दीक्षा ग्रहण करे और उनसे उपदेश लेकर उसके सहारे चलते हुए, अर्थात् उस उपदेश के अनुसार अभ्यास करते हुए, संसार के पार चला जाये। इस विचार को व्यक्त करते हुए आचार्य पद्मनन्दि कहते हैं: यह संसार-वन अज्ञान-अन्धकार से व्याप्त है, दुःखरूप व्यालों से-दुष्ट हाथियों अथवा सो से भरा हुआ है और उसमें ऐसे कुमार्ग हैं जो दुर्गतिरूप गृहों को ले जानेवाले हैं और जिनमें पड़कर सभी प्राणी भूले-भटके घूम रहे हैं-भवन में चक्कर काट रहे हैं। उस वन में निर्मल ज्ञान की प्रभा से देदीप्यमान-गुरु-वाक्य रूप (गुरु दीक्षा और उपदेशरूप) महान् दीपक जल रहा है। जो सुबुधजन है वह उस ज्ञानदीपक को प्राप्त होकर और उसके सहारे से सन्मार्ग को देखकर सुखपद को-सुख के वास्तविक स्थान (मोक्ष) को-प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है।42 , चूँकि मनुष्य-जीवन ही मोक्ष-प्राप्ति का एकमात्र अवसर है, इसलिए जब तक शरीर में शक्ति है तब तक मनुष्य को दृढ़ता से गुरु के बताये उपदेश के
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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