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जैन धर्म : सार सन्देश
मानवता वह विशेष गुण है जिसके बिना मानव, मानव नहीं कहला सकता। मानवता उस व्यवहार का नाम है जिससे दूसरों को दुःख न पहुँचे, उनका अहित न हो, एक-दूसरे को देखकर क्रोध की भावना जागृत न हो। संक्षेप में सहृदयतापूर्ण शिष्ट और मिष्ट (मिठासयुक्त) व्यवहार का नाम मानवता है ।
मनुष्य वही है जो आत्मोद्धार में प्रयत्नशील हो ।
मनुष्यता वही आदरणीय होती है जिसमें शान्तिमार्ग की अवहेलना न हो ।
मनुष्य का सबसे बड़ा गुण सदाचारिता और विश्वासपात्रता है। मनुष्य वही है जो अपनी प्रवृत्ति को निर्मल करता है।
प्रत्येक वस्तु सदुपयोग से ही लाभदायक होती है । यदि मनुष्य पर्याय (जन्म) का सदुपयोग किया जावे तो देवों को भी वह सुख नहीं जो मनुष्य प्राप्त कर सकता है। 37
आत्म
आत्म-कल्याण चाहनेवाले मनुष्य में संयम-नियम के साथ ही म- विश्वास का होना भी अत्यन्त आवश्यक है । आत्म-विश्वास के बिना न हमारे प्रयत्न में दृढ़ता आ सकेगी और न हम अपने लक्ष्य को ही प्राप्त कर सकेंगे। इसे वर्णीजी ने बड़े ही सुन्दर ढंग से समझाया है । वे कहते हैं:
आत्मविश्वास एक विशिष्ट गुण है। जिन मनुष्यों का आत्मा में विश्वास नहीं, वे मनुष्य धर्म के उच्चतम शिखर पर चढ़ने के अधिकारी नहीं । जिस मनुष्य को आत्मविश्वास नहीं वह कभी भी महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकता।
जो मनुष्य सिंह के बच्चे होकर भी अपने को भेड़तुल्य तुच्छ समझते हैं, जिन्हें अपने अनन्त आत्मबल पर विश्वास नहीं, वही दुःख के पात्र होते हैं। 38
मनुष्य का लक्ष्य सच्ची शान्ति या मोक्ष को प्राप्त करना है । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसे पूरे आत्म-विश्वास के साथ एकान्त-साधना में लगना