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मानव-जीवन
की ओर ध्यान दें तो वे नर से नारायण बन सकते हैं। इस बात की ओर ध्यान दिलाते हुए वर्णीजी कहते हैं:
जितनी चिन्ता इन रोगों के घर शरीर को स्वच्छ और सुरक्षित करने की लोग करते हैं, यदि उतनी चिन्ता शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा को स्वच्छ और सुरक्षित रखने की ( रागद्वेष से बचाने की ) करें तो एक दिन वे अवश्य ही नर से नारायण हो जायेंगे इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। 34
वर्णीजी बार-बार अनेक प्रकार से हमें अपने-आपको पहचानने या आत्मानुभव प्राप्त करने के लिए चिताते हैं । वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि बिना इस आन्तरिक ज्ञान के मनुष्य-जीवन निरर्थक है:
स्वरूप- सम्बोधन (अपने असली स्वरूप का ज्ञान या अनुभव) ही कार्यकारी (सभी कार्यों को करनेवाला) और आत्मकल्याण की कुञ्जी है। इसके बिना मनुष्य - जन्म निरर्थक है ।
जिन महापुरुषों ने अपने को जाना वही परमात्मा पद के अधिकारी हुए। 35
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मनुष्य-जीवन पाकर भी जो पशुओं की तरह केवल खाने-पीने, सोने आदि में ही अपना जीवन बिता देता है, उसे मनुष्य कहलाने का कोई अधिकार नहीं । मनुष्य वही है जो विवेकपूर्वक आवश्यक नियमों का पालन करे और अपने जीवन में सदा संयम से काम ले । संयम और नियम से रहकर ही वह आत्मानुभव के लिए सफल प्रयत्न कर सकता है और इस प्रकार अपने जीवन को सार्थक बना सकता है। इन बातों को स्पष्ट करते हुए गणेशप्रसाद वर्णी कहते हैं:
नियम का उल्लंघन करना आत्मघात ( आत्म विनाश) का प्रथम चिह्न है 136
अहिंसा, अक्रोध, सचरित्रता, आत्म-शुद्धि आदि संयमों और नियमों की ओर संकेत करते हुए वे फिर कहते हैं: