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________________ 148 जैन धर्मः सार सन्देश वैराग्य की प्राप्ति कर लेना ही मनुष्य-जन्म का सार है, जैसा कि आचार्य कुंथुसागरजी महाराज कहते हैं: अतएव प्रत्येक भव्य जीव को ज्ञान वैराग्य बढ़ाने के लिए विषय कषायों का (विषयों के प्रति क्रोध, मान आदि का) त्याग करना चाहिए और आत्मा में लीन होकर ज्ञान वैराग्य की वृद्धि करते रहना चाहिए। यही मनुष्य-जन्म का सार है। हुकमचन्द भारिल्ल ने भी आत्मज्ञान की महत्ता बताते हुए कहा है कि अपने को पहचानकर ही जीव भगवान् बन सकता है: अपने को नहीं पहचानना ही सबसे बड़ी भूल है तथा अपना सही स्वरूप समझना ही अपनी भूल सुधारना है। भगवान् कोई अलग नहीं होते। यदि सही दिशा में पुरुषार्थ करे तो प्रत्येक जीव भगवान् बन सकता है। स्वयं को जानो, स्वयं को पहचानो, और स्वंय में समा जावो, . भगवान बन जावोगे।"32 आत्म-लीनता की अवस्था में जीव सभी कर्म-बन्धनों से मुक्त हो जाता है। इसीलिए इसे मुक्ति या मोक्ष कहते हैं। यह अनन्त आनन्द की अवस्था है, जिसे हम केवल अपने मनुष्य-जीवन में ही प्राप्त कर सकते हैं। इसे प्राप्त करना ही मनुष्य-जीवन को सफल या सार्थक बनाना है। इसे स्पष्ट करते हुए तत्त्वभावना में कहा गया है: सर्व कर्मों के बंध से छूटकर आत्मा के पवित्र हो जाने का नाम मोक्ष तत्त्व है। मोक्ष अवस्था में आत्मा सदा अपने ज्ञानानंद का विलास किया करती है। जबतक हम इस देह में हैं हमें अपना समय इसी तरह पर बिताकर सफल करना चाहिए। यही मानव जीवन का लाभ है। 33 अज्ञानी जीव अपने शरीर की चिन्ता तो बहुत करते हैं, पर अपनी आत्मा की चिन्ता उन्हें नहीं होती। यदि वे आत्म-चिन्तन करें और अपनी आत्म-शुद्धि
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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