SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 146 जैन धर्म : सार सन्देश मनुष्य - जन्म अति दुर्लभ है । केवल जीवित रहना निःसार (सारहीन) है । ऐसी अवस्था में मनुष्य को आलस्य त्यागकर अपने हित को जानना चाहिए। वह हित मोक्ष ही है । जो धीर और विचारशील मनुष्य हैं, तथा अतीन्द्रिय सुख (मोक्ष - सुख) की लालसा रखते हैं, उनको प्रमाद ( लापरवाही) छोड़कर इस मोक्ष का ही सेवन परम आदर भाव से करना चाहिए, अर्थात् अत्यन्त श्रद्धा और प्रेम से मोक्ष प्राप्ति की साधना में लगे रहना चाहिए। 27 अनन्त काल और अनेक कठिनाइयों के बाद प्राप्त होनेवाला यह मनुष्य- जीवन पारमार्थिक साधना करने का एकमात्र दुर्लभ अवसर है। इसलिए इसे मुख्यतः धर्म की साधना और आत्मज्ञान की प्राप्ति करने में ही लगाना चाहिए। इसका दुरुपयोग सांसारिक विषय - सुखों के लिए, जो अनित्य, सारहीन और अन्ततः दुःखदायी हैं, नहीं करना चाहिए। यह बतलाते हुए कि धर्म - साधना के इस अवसर को प्राप्त करना कितना कठिन है, आचार्य पद्मनन्दि कहते हैं: इस संसार में अनन्त काल भ्रमण करते हुए भी जीव को मनुष्यता की प्राप्ति नहीं होती, यदि होती भी है तो दुष्कुल में, जहाँ प्राप्त होकर भी पाप के कारण वह पुनः नष्ट हो जाती है। और यदि सत्कुल में भी प्राप्त होती है तो या तो जीव गर्भ में ही विलीन हो जाता है या जन्म लेते ही मर जाता है और या बचपन में ही नष्ट हो जाता है। इन सब अवस्थाओं में तो धर्म की प्राप्ति का कोई अवसर ही नहीं होता । अतः जब युवावस्थादि में अवसर मिले तो उसे धर्म की साधना के लिए उत्तम प्रयत्न करना चाहिए - उस अवसर को यों ही न खो देना चाहिए। 28 हुए कि इस दुर्लभ मनुष्य - जीवन को किस कार्य में लगाना चाहिए, जैनधर्मामृत में स्पष्ट कहा गया है: यह आत्म-कल्याण के इच्छुक जनों को उचित है कि यह उत्तम मनुष्य भव (जन्म) पाकर उसे अन्त में दुःख देनेवाले सांसारिक पदों के पाने
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy