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मानव-जीवन
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सदुपयोग कर अपना जीवन सच्चे धर्म की साधना में लगा सकता है और अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। इसप्रकार धर्म की साधना, आत्मस्वरूप का ज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति-यही मानव-जीवन का लक्ष्य है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने पर ही मानव-जीवन सफल या सार्थक होता है।
मोक्ष-प्राप्ति का यह दुर्लभ अवसर बहुत ही थोड़े समय के लिए मिलता है। मानव-जीवन की इस दुर्लभता और क्षणिकता को जो भली-भाँति समझ लेता है, वह तुरन्त मोक्ष-प्राप्ति के उपाय की खोज में लग जाता है और सच्चे खोजी को सच्ची राह मिल ही जाती है। गणेशप्रसाद वर्णी ने बड़ी ही सरलता और स्पष्टता से यह बात कही है। वे कहते हैं:
जो मनुष्य अपने मनुष्यपने की दुर्लभता को देखता है वही संसार से पार होने के उपाय अपने-आप खोज लेता है।
जो मनुष्य-जीवन की दुर्लभता और इससे प्राप्त किये जानेवाले सर्वोत्तम लाभ को समझ लेता है, वह कभी भी अपनी साधना में सुस्ती, प्रमाद या लापरवाही नहीं आने देता। वह पूरी तत्परता के साथ अपने लक्ष्य की प्राप्ति में लग जाता है। जैनधर्मामृत में स्पष्ट कहा गया है:
संसार में कोटि-कोटि जन्म धारण कर लेने पर भी नहीं प्राप्त होनेवाला यह अति दुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर मेरा यह प्रमाद (लापरवाही) कैसा!26
पशु-पक्षी अपना जीवन केवल खाने-पीने, सोने आदि में बिता देते हैं। पर मनुष्य केवल जीने के लिए संसार में नहीं आता। उसके जीवन का उद्देश्य है अपना कल्याण करना, अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति करना। यह जानते हुए कि इस उद्देश्य की पूर्ति केवल मनुष्य-जीवन में ही हो सकती है, मनुष्य को चाहिए कि वह प्रमाद या लापरवाही को पूरी तरह त्यागकर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर ले। शुभचन्द्राचार्य ने ऐसा ही उपदेश अपने ज्ञानार्णव में दिया है। वे कहते हैं: