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मानव-जीवन
143 जिस प्रकार पक्षी एक वृक्ष से उड़कर दूसरे वृक्ष पर और भौरे एक फूल से उड़कर दूसरे फूल पर जा बैठते हैं, उसी प्रकार ये जीव संसार में निरन्तर एक भव (जन्म) को छोड़कर दूसरा भव धारण करते रहते हैं। इस प्रकार जीवों की अस्थिरता को, किसी भी एक स्थान पर स्थिर न रहने की परिणति को जानकर जो सुबुधजन (सुविज्ञ या ज्ञानीजन) हैं, वे प्रायः किसी के भी जन्म लेने पर हर्ष और मरने पर शोक नहीं करते हैं।
प्रतिदिन सूर्य के उदय और अस्त होने तथा पत्र, फूल और फल के वृक्षों पर लगने और फिर झड़ने के उदाहरणों द्वारा भी आचार्य पद्मनन्दि मनुष्य-जीवन की अस्थिरता या अनित्यता की ओर हमारा ध्यान दिलाते हैं। वे कहते हैं:
जिस प्रकार सूर्य प्रातःकाल उदय को प्राप्त होता है और अपना समय पूरा करके अस्त हो जाता है-छिप जाता है-उसी प्रकार सर्व प्राणियों का यह देह है जो उपजता है और आयु पूरी हो जाने पर विनश जाता है। ऐसी स्थिति के होते हुए यदि काल पाकर अपना कोई प्यारा सम्बन्धी मर जाता है उस पर कौन ऐसा सुबुद्धजन है जो शोक करता है ? बुद्धिमान् तो कोई भी शोक नहीं कर सकता, बहिरात्मदृष्टि मूढजन ही शोक किया करते हैं।
जिस प्रकार पत्र, फूल और फल वृक्षों पर उत्पन्न होते हैं और निश्चित रूप से गिरते हैं-झड़ पड़ते हैं-उसी प्रकार प्राणी कुलों में जन्म लेते हैं और फिर मरण को प्राप्त होते हैं। इस तरह यह अटल नियम देखकर बुधजनों को जन्म-मरण के अवसरों पर हर्ष-शोक क्या करना चाहिए? नहीं करना चाहिए-उन्हें वस्तुस्वरूप का विचार कर हृदय में समता भाव धारण करना चाहिए।"
मनुष्य की आयु और शक्ति प्रतिक्षण घटती जाती है। इसलिए अपने हित की चाह रखनेवाले मनुष्य को चाहिए कि अपने क्षणिक जीवन का सदुपयोग समय रहते कर ले, जैसा कि जैनधर्मामृत में कहा गया है:
आरोग्य, आय, बल-वीर्य और धन-धान्यादिका समुदाय ये सभी चञ्चल हैं, अनियत एवं क्षणभंगुर हैं। जबतक इन सबका सुयोग प्राप्त है, तबतक आत्म-हित के कार्यरूप धर्म में मुझे सर्व प्रकार से उद्यम करना चाहिए।