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जैन धर्म: सार सन्देश सांसारिक विषयों में ही आसक्त बने रहते है, उन्हें भ्रमित चित्तवाला या पागल न कहें तो क्या कहें? इसी भाव को व्यक्त करते हुए आचार्य पद्मनन्दि हमें सांसारिक विषयों से अनासक्त रहने और आत्मज्ञान की प्राप्ति के प्रयत्न में लगने का उपदेश देते हैं। वे कहते हैं:
जो मनुष्य यह जानते, देखते और सुनते हुए भी कि जीवन, यौवन तथा स्त्री, पुत्र, मित्र, बान्धव और धनादिक बिजली के समान चंचल हैं-कोई भी इनमें स्थिर रहनेवाला नहीं है-अपना कार्य-अपने आत्म हित की साधना-नहीं करता है-मोह में फँसा हुआ इन्हीं से आसक्त बना रहता है-उसे पागल कहें, ग्रह पीड़ित (भूत लगा) समझें अथवा भ्रान्तचित्त नाम देवें, कुछ समझ में नहीं आता!
चम्पक सागरजी महाराज इस मनुष्य-जीवन को किराये का मकान कहकर इसकी अनित्यता दिखलाते हैं। वे कहते हैं:
शरीर तो एक तरह संसारी जीव को कुछ देर तक किराये पर लिया हुआ एक घर है। नियत समय के बाद यह किराये का मकान जीव को नियम से ख़ाली करना पड़ता है।16
मनुष्य-जीवन की अनित्यता या क्षणभंगुरता को जैनधर्मामृत में इसप्रकार समझाया गया है: / जिस प्रकार पक्षिगण नाना दिग्देशान्तरों से आकर सायंकाल के समय
वृक्षों पर बस जाते हैं और प्रातः काल होते ही सब अपने-अपने कार्य से अपने-अपने देशों और दिशाओं में चले जाते हैं, उसी प्रकार ये संसारी जीव विभिन्न गतियों से आकर एक कुटुम्ब में जन्म लेते हैं और आयु पूरी होने पर अपने-अपने कर्मोदय के अनुसार अपनी-अपनी गतियों को चले जाते है। जब संसार की यह दशा है तब हे आत्मन्, इनमें मोह कैसा? और उनमें इष्ट-अनिष्ट की कल्पना करके राग-द्वेष कैसा? इसी प्रकार आचार्य पद्मनन्दि भी मानव-जीवन की अस्थिरता या अनित्यता को समझाने के लिए पक्षी और भौरे का उदाहरण देते हुए कहते हैं: