________________
मानव-जीवन
139 इसी विचार को प्रकट करते हुए छहढाला में भी कहा गया है: "किसी शुभकर्म के उदय से यह जीव मनुष्य गति प्राप्त करता है।"
वास्तव में यह संसार सारहीन है। यह दुःखों का घर है। यहाँ जीव मुख्यतः अपने कर्मों का फल भोगने के लिए जन्म धारण करते हैं। इसीलिए उनके जीवन को भोग-योनि कहते हैं। केवल मनुष्य-जीवन में ही जीव को अपने कर्मों के फल भोगने के अतिरिक्त संयमपूर्वक पारमार्थिक साधना करने का दुर्लभ अवसर भी प्राप्त होता है। इसीलिए इसे कर्म-योनि कहते हैं। यदि सौभाग्य से जीव को मनुष्य-जीवन प्राप्त हो जाये तो उसे चाहिए कि वह अपने स्वरूप को पहचानने और अपने जीवन को सफल बनाने का भरपूर प्रयत्न करे। इस सम्बन्ध में शुभचन्द्राचार्य ने अपने विचार को इस प्रकार व्यक्त किया है:
दुरन्त (बुरे परिणामों वाला) तथा साररहित इस अनादि संसार में गुणों से युक्त मनुष्यपना (मनुष्य-जीवन) ही जीवों को दुष्प्राप्य है, अर्थात् दुर्लभ है। ...तुझे अपने में ही अपनी आत्मा को निश्चय करके अपना कर्तव्य सफल कर लेना चाहिए। इस मनुष्य-जन्म के सिवाय अन्य किसी जन्म में अपने स्वरूप का निश्चय नहीं होता।
इसी विचार को प्रकट करते हुए चम्पक सागरजी महाराज कहते है:
लक्ष चौरासी भटकते, मिला मनुष्य अवतार। चेत सके तो चेत ले, आत्म कर विचार॥ महा मुश्किल से पा लिया, मानव का अवतार। सफल करले प्रेम से, कर कार्य हितकार ॥'
मानव-जीवन की क्षणभंगुरता अत्यन्त कठिनाई से प्राप्त यह मानव-जीवन बहुत ही थोड़े समय के लिए मिलता है। एक तो यह अनित्य या नश्वर है और दूसरे, इसकी अवधि अनिश्चित है। हमें पता नहीं कि यह जीवन कब हाथ से निकल जायेगा या कब हम मृत्यु के शिकार हो जायेंगे। हमें पता नहीं कि इस मनुष्य-जीवन में हमें कितने