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जैन धर्म: सार सन्देश ___इस संसार में जीव मन के द्वारा ही सोच-विचार करता है और ठीक-ठीक विचार करने के लिए उसमें विवेक (भले-बुरे की पहचान करनेवाली शक्ति) का होना आवश्यक है। इस प्रकार इस संसार में मन और विवेक-इन दोनों से युक्त होने पर ही जीव अपना समुचित विकास कर सकता है। ___ जैन धर्म के अनुसार संसार में असंख्य जीव ऐसे हैं जिन्हें केवल एक ही इन्द्रिय (स्पर्शेन्द्रिय) प्राप्त है, जैसे-वनस्पतियाँ। फिर क्रमश: दो, तीन, चार
और पाँच इन्द्रियोंवाले जीव होते हैं । इनसे भी ऊपर की श्रेणी में वे जीव आते हैं जिन्हें पाँचों इन्द्रियों के अलावा मन भी प्राप्त होता है। वे संज्ञी (मन से युक्त) जीव कहलाते हैं। जिन जीवों में मन नहीं होता उन्हें असंज्ञी जीव कहते हैं। संज्ञी जीवों में एकमात्र मनुष्य ही विवेक से युक्त होता है। इसलिए केवल वही अपने विवेक के सदुपयोग द्वारा संयमपूर्वक पारमार्थिक साधना में लगकर मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। इसी कारण गणेशप्रसाद वर्णी मनुष्य योनि को सभी योनियों से उत्तम बताते हुए कहते हैं:
आत्मा की निर्मल परिणति का नाम ही धर्म है। तब जितने जीव हैं सभी में उसकी योग्यता है परन्तु इस योग्यता का विकास संज्ञी जीव के ही होता है। जो असंज्ञी हैं अर्थात् जिनके मन नहीं है उनमें तो उसके विकास का कारण ही नहीं। संज्ञी जीवों में एक मनुष्य ही ऐसा है जिसमें उसका पूर्ण विकास होता है। यही कारण है कि सब पर्यायों (योनियों) में मनुष्य पर्याय (योनि) ही उत्तम मानी गयी है। इस पर्याय से हम संयम धारण कर सकते हैं (अपनी चित्तवृत्ति को सांसारिक विषयों से निवृत कर सकते हैं, अर्थात् हटा सकते हैं)। अन्य पर्याय में संयम की योग्यता नहीं।
वर्णीजी के अनुसार यह मनुष्य-जीवन, जो हमें संयम करने का अवसर प्रदान करता है, किसी महान् पुण्य से ही प्राप्त होता है। वे स्पष्ट कहते हैं:
मनुष्यायु (मनुष्य-जीवन) महान् पुण्य का फल है। संयम का साधन इसी पर्याय में होता है। संयम निवृत्ति रूप है, और निवृत्ति का मुख्य साधन यही मानव शरीर है।