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मानव-जीवन
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संसार के अनन्त जीवों को चौरासी लाख योनियों में बाँटा जाता है। पर इन सबों में मनुष्य योनि को ही श्रेष्ठ योनि माना जाता है, क्योंकि मनुष्य में ही विवेक करने की शक्ति होती है। इसका सदुपयोग कर वह अपने लक्ष्य को निश्चित कर सकता है और उचित प्रयत्न द्वारा उसे प्राप्त कर सकता है । मनुष्य-जीवन की इसी विशेषता की ओर ध्यान दिलाते हुए नाथूराम डोंगरीय जैन कहते हैं:
यहाँ चौरासी लाख योनियों द्वारा जीव जन्म-मरण करते रहते हैं । सम्पूर्ण योनियों में मनुष्य योनि ही श्रेष्ठ योनि है; क्योंकि इसको पाकर आत्मा अपने भले-बुरे का विचार कर सकती है, साथ ही मुक्ति भी प्राप्त कर सकती है | 2
इसप्रकार केवल मनुष्य-जीवन में ही जीव पारमार्थिक साधना में लगकर मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है । इसीलिए मनुष्य - जीवन को सर्वोत्तम माना जाता है। इस बात को बताते हुए कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है:
मनुष्यगति में ही तप होता है, मनुष्यगति में ही समस्त महाव्रत होते हैं, मनुष्यगति में ही ध्यान होता है और मनुष्यगति में ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
अनन्त जीवों से भरे इस संसार में मनुष्यों की संख्या बहुत कम है, फिर भी एकमात्र मनुष्य में ही अपना पूर्ण विकास करने और परमपद को प्राप्त करने की क्षमता है । इसीलिए मनुष्य - योनि को सर्वश्रेष्ठ या सर्वोत्तम माना जाता है । इस बात को गणेशप्रसादजी वर्णी ने बड़ी अच्छी तरह समझाया है । वे कहते हैं:
संसार की अनन्तानन्त जीवराशि में मनुष्यसंख्या बहुत थोड़ी है । किन्तु यह अल्प होकर भी सभी जीवराशियों में प्रधान है। क्योंकि मनुष्य पर्याय (जन्म) से ही जीव निज शक्ति का विकास कर संसार - परम्परा को, अनादि कालीन कार्मिक दुःख - सन्तति को समूल नष्ट कर अनन्त सुखों का आधार परमपद प्राप्त करता है । 4