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जैन धर्म : सार सन्देश
बनी रहती है और ऐसी स्थिति में मन को एकाग्र कर सुमिरन ध्यान आदि 'अन्तर्मुखी साधनों में लगाना सम्भव नहीं हो पाता । मदिरा पीने से होनेवाली अनेक हानियों का उल्लेख करते हुए पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा गया है:
मदिरा-पान चित्त को मोहित करता है, और मोहित - चित्त पुरुष धर्म को भूल जाता है तथा धर्म को भूला हुआ जीव हिंसा का नि:शंक (निडर) होकर आचरण करता है । 49
मदिरा या शराब को रस से उत्पन्न होनेवाले अनेक सूक्ष्म जीवों का उत्पत्तिस्थान माना जाता है। इसलिए जो मदिरा पीता है वह उन जीवों की हिंसा भी अवश्य करता है। जैनधर्मामृत में इसे इन शब्दों में स्पष्टं किया गया है:
मदिरा, रसोत्पन्न ( रस से उत्पन्न होनेवाले ) अनेक जीवों की योनि (उत्पत्ति की जगह ) कही जाती है, इसलिए मद्य सेवन करनेवाले जीवों के हिंसा अवश्य ही होती है।
भावार्थ - मदिरा में तद्रस- जातीय (उस रस से उत्पन्न होनेवाली जाति के) असंख्य जीव निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं, और पीते समय उन सब की मृत्यु हो जाती है, इसलिए मदिरा -पान में हिंसा नियम से होती ही है। 50
मदिरा - पान अनेक विकारों को उत्पन्न करता है या यों कहें कि मदिरा पान अनेक दुर्गुणों का रूप ले लेता है। जैनधर्मामृत में इसे इन शब्दों में व्यक्त किया गया है:
अभिमान, भय, जुगुप्सा ( निन्दा), हास्य, अरति, ( अशान्ति) शोक, काम, क्रोध - आदिक हिंसा के ही पर्यायवाची नाम हैं और वे सब ही मदिरा - पान के निकटवर्ती हैं। 51
इन कथनों से स्पष्ट है कि मांस-मदिरा आदि तामसिक और नशीले पदार्थों के सेवन की प्रवृत्ति हिंसा को बढ़ावा देती है और हिंसा का अभिमान, काम, क्रोध आदि विकारों से अत्यन्त निकट सम्बन्ध है । इसलिए इन विकारों से