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________________ अहिंसा 133 खेल या मनोरंजन मानते हैं और कुछ लोग यों ही बिना किसी कारण के पशुओं की हिंसा करते हैं।47 कहा जा चुका है कि जैन धर्म के अनुसार धर्म मोक्ष का साधन है और धर्म का पालन केवल मनुष्य ही कर सकता है। जीव-दया और जीव-रक्षा धर्म के मूल आधार हैं। इसलिए जीवों पर दया करना और उनकी रक्षा करना मनुष्य के आवश्यक कर्तव्य हैं। यदि मनुष्य अपने खाने योग्य अनेक उत्तम पदार्थों के संसार में होते हुए भी निरपराध पशु-पक्षियों की निर्दयतापूर्वक हत्या कर उनका मांस खाना पसन्द करता है तो यह उसका अन्याय ही नहीं, बल्कि घोर अत्याचार है। यदि रक्षक ही भक्षक बन जाये तो उसे अत्याचारी न कहें तो क्या कहें? इस सम्बन्ध में नाथूराम डोंगरीय जैन अपना विचार इन शब्दों में प्रकट करते हैं: दूध और मक्खन, घी और बादाम, मेवा और फल जैसे पौष्टिक, पवित्र, सुस्वादु, सुन्दर और सात्त्विक पदार्थों के होते हुए गाय और बकरा, हिरण और मुर्ग, मछली व कबूतर जैसे मूक तथा दीन पशुओं को मार-काटकर गले उतार जाना (निगल जाना) कौन सा इन्सानियत का काम है ? जब लोग निर्दयतापूर्वक पशु-पक्षियों के गले पर छुरियाँ चलाते हैं तब उन बेचारों के ऊपर क्या बीतती होगी? क्या वे यह समझते हैं कि जिनके गलों पर छुरियाँ चलाई जा रही हैं वे पत्थर के बने हुए हैं ? जैन धर्म ललकार कर कहता है कि ऐ मानव! तुझे तो इतनी शक्ति और बुद्धि प्राप्त हुई है। उसका सदुपयोग करना सीख, और अपने ही समान दूसरों के प्राणों और हितों की यदि उदारतापूर्वक रक्षा नहीं कर सकता तो कम से कम उनका भक्षक तो न बन।48 जैन धर्म में मांस के साथ ही शराब आदि नशीले पदार्थों से भी परहेज़ करने का उपदेश दिया गया है। मदिरा-पान का हिंसा से गहरा सम्बन्ध है, क्योंकि मदिरा (शराब) पीनेवाले की स्वाभविक प्रवृत्ति हिंसा की ओर होती है और वह अति शीघ्र उत्तेजित होकर काम, क्रोध, अहंकार आदि दुर्गुणों का शिकार हो जाता है। मदिरा के सेवन से मन और बुद्धि विकृत और विचलित
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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