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जैन धर्मः सार सन्देश विवेकशील कहलानेवाले मनुष्य को त्रस (चल) और स्थावर (अचल) जीवों के इस भेद को समझते हुए चलने-फिरनेवाले जीवों का घात नहीं करना चाहिए।
मनुष्य से निचले श्रेणियों के जीव अपनी स्वाभाविक मूल प्रवृत्तियों के अनुसार शाकाहार, मांसाहार या दोनों ही प्रकार का आहार लेनेवाले होते हैं। उनकी इन जन्मजात प्रवृत्तियों में बदलाव नहीं होता। उदाहरण के लिए, बाघ
और सिंह भूखे रहने पर भी घास नहीं खाते। इसी प्रकार गाय और घोड़े किसी भी हालत में मांस नहीं खाते। पर मनुष्य में अपने को बदलने की अपार क्षमता है। इस क्षमता का सदुपयोग कर वह परमात्मा बन सकता है और इसका दुरुपयोग कर घोर नरक में जा सकता है। मनुष्य के शरीर की प्राकृतिक बनावट (जैसे उसके दाँत, नख आदि) पर विचार करने पर यह आसानी से समझा जा सकता है कि मांस उसका स्वाभाविक आहार नहीं है। जबतक मनुष्य अपनी रुचि को विकृत नहीं कर लेता तबतक स्वाभाविक रूप से उसे न मांस की गंध अच्छी लगती है
और न वह मांस को बिना पकाये खा ही सकता है। पर मांस खानेवालों की संगति में रहकर वह मांस को मसालों और तेल में तलकर या पकाकर खाता है और उसका गंध लेना पसन्द करता है। जैन धर्म के प्रसिद्ध ग्रन्थ सूत्रकृतांग में मनुष्य की इस बिगड़ी दशा की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा गया है:
कुछ लोग मांस के लिए भेड़-बकरे को खिलाकर मोटा करते हैं और उनका मांस तेल, नमक और मसालों के साथ पकाकर खाते-खिलाते
और खुशियाँ मनाते हैं। धर्म और नैतिकता से विमुख ऐसे मनुष्य अज्ञानवश झूठी खुशियाँ मनाते हुए पाप कमाते हैं।46 हिंसक मनुष्य अपने सुख और शौक़ को पूरा करने के लिए कई प्रकार के अनावश्यक प्रयोजनों को बतलाकर पशुओं की हिंसा करते हैं। जैन ग्रन्थ आचारांग सूत्र में ऐसे कुछ प्रयोजनों का उल्लेख इन शब्दों में किया गया है:
कुछ लोग यज्ञ के लिए पशुओं का वध करते हैं और कुछ दूसरे लोग चमड़े, मांस, खून, जिगर, पंख, दाँत, सींग आदि के लिए पशु-पक्षियों को मारते हैं तथा कुछ लोग जंगली पशुओं का शिकार करने को अपना